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राष्ट्रपति चुनाव में दलित पर दांव और दावा
राष्ट्रपति चुनाव में दलित पर दांव और दावा
राजीव रंजन तिवारी    24 Jun 2017       Email   

हम 21वीं सदी के 17वें वर्ष में सांस ले रहे हैं। लेकिन अब भी न सिर्फ जात-पात की बातें हो रही हैं, बल्कि इस तरह की सोच दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की राजनीति को प्रभावित कर रही है। कोई दलित देश का राष्ट्रपति बने, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन दलितों के वोट पर कब्जा जमाने के लिए दलित नेता को राष्ट्रपति बनाया जाए, यह सोच दुर्भाग्यपूर्ण है। इसके लिए बिहार के राज्यपाल व कानपुर के रहने वाले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति पद के लिए भाजपा नीत राजग ने अपना उम्मीदवार घोषित कर दिया तो फिर विपक्षी कांग्रेस भी कहां पीछे रहने वाली थी, उसने भी एक सुयोग्य दलित महिला मीरा कुमार को अपना प्रत्याशी बनाकर एनडीए के नहले पर दहला मार दिया। इससे देश की सियासत रोचक मोड़ पर आ गई है। कांग्रेस नेता मीरा कुमार के मैदान में आने के बाद राष्ट्रपति चुनाव की लड़ाई दिलचस्प हो गई है। हालांकि आंकड़ों के मुताबिक एनडीए उम्मीदवार रामनाथ कोविंद की जीत को लेकर कोई शक नहीं है, लेकिन सोनिया गांधी के नेतृत्व में हुई विपक्षी दलों की बैठक में दिखी एकजुटता ने राष्ट्रपति चुनाव के जरिए एक राजनीतिक संदेश जरूर दिया है। हालांकि जेडीयू अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बीजेडी सुप्रीमो नवीन पटनायक के कोविंद को दिए समर्थन से विपक्ष में पड़ी फूट से बीजेपी काफी संतुष्ट भी है। तभी तो विपक्ष के फैसले के तुरंत बाद पार्टी के प्रवक्ताओं ने उनकी एकजुटता पर निशाना साधा। भाजपा के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी ने कहा कि तीन साल से विपक्ष बात-बात पर एकजुटता दिखाता रहा, लेकिन बार-बार वह बिखरता रहा। इस बार भी विपक्ष में जुटे लोग अपने स्वार्थ की वजह से साथ हैं, जो जल्द ही फिर अलग दिखेंगे। बीजेपी अपनी जीत के लिए आश्वस्त है, इसलिए कोविंद के सामने किसी भी विरोधी के मैदान में उतरने से उसे फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इसके बहाने एसपी, बीएसपी, लालू और शरद पवार का साथ आकर रणनीति बनाना जरूर उसे खटक रहा है।  
22 जून को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में हुई सत्रह विपक्षी दलों की बैठक में मीरा कुमार के नाम पर सर्वसम्मति बनी। मोदी और शाह ने रामनाथ कोविंद के रूप में दलित प्रत्याशी उतार कर विपक्ष को चकरा दिया था। यह भी कहा जा सकता है कि इससे विपक्ष अचानक बचाव की मुद्रा में आ गया। कोविंद की उम्मीदवारी के जरिए भाजपा ने जो दांव चला, उसकी काट के लिए मीरा कुमार से बेहतर चयन और क्या हो सकता था। मीरा कुमार भी दलित हैं। कोविंद बिहार के गवर्नर रह चुके हैं तो मीरा कुमार का नाता बिहार से और भी गहरा है। लंबे समय तक देश के शीर्ष दलित नेता रहे जगजीवन राम की बेटी मारी कुमार नौकरशाही से राजनीति में आईं, सासाराम से सांसद रहीं और पंद्रहवीं लोकसभा की अध्यक्ष रह चुकी हैं। इस तरह उन्हें प्रशासन, सार्वजनिक कार्य और विधायी कार्य आदि सबका विशद ज्ञान व अनुभव है। लेकिन उन्हें अपना उम्मीदवार बनाने में विपक्ष ने वास्तव में देर कर दी है। वैसे अगर मीरा कुमार का नाम पहले सामने आता, तब भी उनके जीत पाने की संभावना बहुत कम रहती, क्योंकि संख्याबल सत्तारूढ़ राजग की तरफ  है। लेकिन तब राष्ट्रपति पद के लिए दलित दावेदारी की पहल का श्रेय राजनीतिक रूप से विपक्ष को जाता। फिलहाल तो मानना पड़ेगा कि पहले कोविंद का नाम सामने करके मोदी-शाह ने बाजी मार ली और पूरे विपक्ष को एकजुट न होने देने में भी सफल हो गए। 
वाइएसआर कांग्रेस ने तो पहले से ही राजग के उम्मीदवार का समर्थन करने का वादा कर रखा था, कोविंद का नाम सामने आने के बाद बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्नाद्रमुक और यहां तक कि जनता दल-यू ने भी अपना समर्थन घोषित कर दिया, जो बिहार में कांग्रेस तथा राष्ट्रीय जनता दल के समर्थन से सरकार चला रहा है। शिव सेना ने भी शुरुआती ना-नुकर के बाद कोविंद के नाम पर हामी भर दी। जाहिर है, वोटों के गणित में कोविंद का पलड़ा भारी दिख रहा है। गौरतलब है कि प्रकाश अंबेडकर का सुझाव था कि अगर विपक्ष आदिवासी उम्मीदवार उतारे तो यह कहीं बेहतर रणनीतिक फैसला होगा, क्योंकि सारे दलों में आदिवासी विधायक हैं और हो सकता है कि राजग के कुछ वोट झटके जा सकें। मालूम नहीं, इस सुझाव पर विपक्षी दलों की क्या राय थी। पर मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाने वाले दलों ने अपना संदेश दे दिया है कि हम भी इस बार एक दलित को राष्ट्रपति बनाना चाहते हैं और कोविंद को हमने आरएसएस की पृष्ठभूमि का होने के कारण स्वीकार नहीं किया। फिर मीरा कुमार दलित तो हैं ही, महिला भी हैं। इस तरह सामाजिक प्रतीक के लिहाज से देखें तो वे कोविंद से भारी पड़ती हैं। पर राजग की तरफ से कोविंद की उम्मीदवारी घोषित हो जाने के दो दिन बाद मीरा कुमार का नाम सामने आने से विपक्ष के फैसले को प्रतिक्रिया की तरह अधिक देखा जा रहा है। 
बहरहाल, परिणाम के बारे में तो लगभग पहले से ही सुनिश्चित है। यह एक ऐसा मुकाबला है जिसमें लोगों को अनुमान है कि नतीजा क्या होगा। पर अगर कोविंद की झोली में राजग के वोटों से ज्यादा वोट आए तो इसे विपक्ष की कमजोरी के रूप में ही देखा जाएगा। राजनीति के जानकार मानते हैं कि संख्याबल के हिसाब से रामनाथ कोविंद की जीत भले पक्की मानी जा रही हो, लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व में 17 दलों की ओर से मीरा कुमार को उम्मीदवार बनाना सत्तापक्ष को निश्चित ही हैरान कर रहा होगा। यूं कि भाजपा नीत एनडीए जिस दलित वोट की ललक में रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाया है, उसमें मीरा कुमार की उम्मीदवारी ने सेंधमारी कर दी। अब देखना है कि पक्ष-विपक्ष को इस दलित कार्ड का भविष्य में क्या चुनावी लाभ मिलता है?






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