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क्या खाएं-क्या पीएं शैली की चर्चा
क्या खाएं-क्या पीएं शैली की चर्चा
सविता चौधरी    02 Jul 2017       Email   

एक बड़ी ही विचित्र बात है कि आजकल लोग कितनी सरलता से बैन यानी प्रतिबंधों को स्वीकार करने लगे हैं, जबकि पहले लोग तुरंत प्रजातंत्र की दुहाई तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर सड़कों पर उतर आते थे। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है बीफ पर प्रतिबंध, जानवरों खासकर गाय खरीदने-बेचने इत्यादि पर रोक। इत्यादि-इत्यादि। अब कुछ सप्ताह पूर्व जम्मू के एक एमएलसी रमेश अरोड़ा ने मांग की है कि चाइनीज खाना मोमोज को बैन यानी निषिद्ध कर दिया जाना चाहिए। कारण? मोमोज को खाना यानी मृत्यु का आवाहन। जब मैं बाहर गई हुई थी, तब मैंने वहां यह समाचार पढ़ा। हमारे ही होटल में कुछ भारतीय भी ठहरे हुए थे। जब मैंने उन्हें यह बताया तो पहले तो सब एकाएक हंस पड़े, उन्हें लगा कि मैं कोई बचकाना मजाक कर रही हूं, किंतु एकाएक उन्हें इसकी गंभीरता का एहसास हुआ और वे थोड़ी देर के लिए चुप बैठ गए। 
यह सत्य है कि मोमोज चाइनीज फूड माना जा सकता है, लेकिन मोमोज से मिलती-जुलती हमारे देश में कई खाने की चीजें बनती हैं। मेरे विचार से मोमोज का सर्वप्रथम प्रचलन बंगाल और दिल्ली में हुआ। बंगाल में एक चाइनीज इलाका है, जहां छोटे-बड़े रेस्तरां हैं, वहां मोमोज खाने वालों की भीड़ देखने योग्य होती है। प्रायः लोग छुट्टी के दिन देर से उठकर मोमोज का नाश्ता करते हैं। बंगाल के लोग वेज, नॉनवेज रोल, बिरयानी, पुचका यानी गोलगप्पे जैसी कुछ विशिष्ट खाने की चीजों से इमोश्नली जुड़े हुए हैं। ये उनकी संस्कृति का हिस्सा कहा जा सकता है। हां, बंगाली मिठाइयों का अपना अलग स्थान है। उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। मैंने भी सर्वप्रथम मोमोज कलकत्ते में ही खाए थे। पहली बार खाने पर मुझे कुछ खास अच्छे नहीं लगे, लेकिन धीरे-धीरे स्वाद की आदत फिर चाहत बन गई।
जहां तक मुझे पता है कि मोमोज भारत में सर्वप्रथम कलकत्ता और दिल्ली में प्रकट हुए। धीरे-धीरे इन्होंने अपनी पहचान पूरे देश में बना ली। लगभग वैसे ही जैसे हमारे देश में चाऊमीन, इडली-दोसा देखते-देखते मानसून के बादल की तरह बढ़ते गए और छा गए। अब यह आम आदमी का खाना हो गया है। बड़े होटलों से विशिष्ट मोमोज आम आदमी की पहुंच में आ गए। एक बार मैं दिल्ली गई। एक अच्छे से रेसीडेंशियल एरिया में एक छोटा-सा बाजार था, जो प्रतिदिन की जरूरतों को पूरा करने में समर्थ था। यानी व्यक्ति दूर न जाकर अपनी ही कॉलोनी में सामान खरीद सके। मैंने गौर किया कि उसी बाजार में एक कोने में एक उत्तरी-पूर्वी राज्य का व्यक्ति टेबल लगाकर उस पर से ही गर्म-गर्म मोमोज बेच रहा था। आती-जाती भीड़ को देखकर लगता था कि  उसके मोमोज ने ख्याति अर्जित कर ली है। कार्यरत युवक, विद्यार्थी, गिनती के पैसे यानी पॉकेटमनी पाए किशोर वहीं खड़े होकर, खाकर जा रहे थे और परिवार वाले ऑर्डर देकर बंधवा रहे थे। यानी हर आयु-वर्ग, गरीब-अमीर सभी की चाहत समान थी। हो भी क्यों न, मोमो अन्य खाद्य पदार्थों की तुलना में सस्ते, सुस्वादु, स्वास्थ्यवर्धक होते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व तक बिकने वाला मोमो बड़े शहरों से छोटे शहरों में भी अपनी पहचान बना रहा है। इन छोटे-बड़े शहरों में प्रातः-सांय जहां-तहां ठेले या पटरी वाली दुकानें सज जाती हैं। इसकी प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण है इसका मूल्य। हमारे पड़ोसी देश नेपाल में भी मोमो खूब खाया जाता है और यही कारण है कि भारत के शहरों में नेपाली बड़ी संख्या में मोमोज का धंधा करते हैं। इन छोटी-मोटी दुकानों की प्रतिदिन की कमाई दो हजार रुपए तक हो जाती है। इडली-डोसे की तरह चटनी, सांभर की भी आवश्यकता नहीं होती, बस उसे बड़ी कोमलता और सहेज कर पकड़ना होता है। हां, अब कई लोग विशिष्टता लाने की दृष्टि से इसे विशिष्ट चटनी या सॉस के साथ परोसने लगे हैं।
मोमोज वेजिटेरियन तथा नॉनवेजिटेरियन दोनों ही बनाए जाते हैं। मैदे या चावल की अत्यंत पतली रोटी-सी बनाकर उसके ऊपर अत्यंत बारीक कटी हुई सब्जियों तथा कुछ मसालों के साथ रखकर उसे चारों तरफ से कलात्मक ढंग से चिपका दिया जाता है, जो दूर से देखने में अधखिले फूल की तरह लगता है। नॉनवेज में अंदर चिकन भरा जाता है। मोमोज का बाहरी आवरण बनाना ही अपने आपमें एक बड़ी कला है, क्योंकि यह मलमल की तरह पतला व पारदर्शी होता है कि अंदर भरी गई सब्जियों या चिकन के छोटे-छोटे टुकड़े झलकते रहते हैं। इन्हें हमेशा भाप में पकाया जाता है। अब नवीनता लाने की दृष्टि से कभी-कभी इन्हें लोग फ्राई भी करने लगे हैं, किंतु भाप में पके मोमो ज्यादा स्वादिष्ट व स्वास्थ्य की दृष्टि से हल्के होते हैं। इन मोमोज में जो एमएसजी यानी अजीनो मोटो सब्जियों या चिकन में मिलाया जाता है, उसे ही नेताजी ने हानिकारक तथा मुत्यु का कारण बताया है। अजीनो मोटो नमक की जगह डाला जाता है, यूं समझिए एक प्रकार का नमक। अभी तक लोग खूब चटकारे लेकर खा रहे हैं, लेकिन नेताजी की बयानबाजी के बाद से लोग स्तब्ध हो गए हैं। दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर सक्रिय आजकल की पीढ़ी ने अपने गुबार को वहीं निकाल कर शायद हृदय को शीतल कर लिया। किसी ने यह तक प्रश्न कर डाला कि मनुष्य मरने के लिए ही जन्म लेता है, फिर अत्यंत प्रचलित एमएसजी चीन में इनग्रीडयेन्ट यानी संघटक है तो वे क्यों चिंतित नहीं होत। उनकी दीर्घ आयु क्यों होती है? शायद नेता जी को ज्ञात नहीं कि अजीनो मोटो का प्रयोग पंजाबी खाने में धड़ल्ले से होता है। भारत के अनेक व्यंजनों में भी इसको डाला जाता है।
उत्तरी-पूर्वी राज्यों में रोजगार की विकट समस्या है। अब इन राज्यों के नवयुवक-नवयुवतियां अन्य राज्यों के शहरों में जाकर काम न मिलने पर ये मोमोज बनाकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। प्रायः दो मित्र या परिवार मिलकर इसे बनाता है और आम व्यक्ति को सस्ते दामों में बेचता है। दोनों ही प्रसन्न। एक की रोजी-रोटी चलती है तो दूसरे की पेट-पूजा सस्ते में हो जाती है। समस्त देश में बेराजगारी बढ़ती जा रही है। अब यदि इसे बैन कर दिया जाए तो सोचिए कितने लोगों का रोजगार छिनेगा। दूसरे यह कोई गंदा धंधा नहीं है। एक सर्वे के अनुसार आजकल भारत में मोटापे की समस्या बढ़ती जा रही है, इसका एक प्रमुख कारण है स्ट्रीट फूड यानी समोसा, कचौड़ी, पकौड़े, पूरी इत्यादि, जो तले हुए होते हैं और जिसका तेल निरंतर जलता रहता है और वह हानिकारक बन जाता है। ऐसा नहीं कि पहले लोग ये सुस्वादु खाने खाते नहीं थे, लेकिन तब यदा-कदा खाया जाता था। आजकल बाहर खाना एक आदत सी बन गई है। कभी-कभी मुझे लगता है कि भाजपा के नेता इस प्रकार के बयान मात्र अपने बड़े नेताओं को प्रसन्न करने के उद्देश्य से देते हैं। लेकिन अफसोस इस बात का है कि बड़े नेता उस पर अमल करने लगते हैं। जी हां, जरा विचार कीजिए। जितने भी बैन-निषेधाज्ञाएं लगाई गईं, पहले उन्हें किसी छोटे नेता ने फुलझड़ी की तरह छोड़ा, लेकिन यही फुलझड़ी प्रज्ज्वलित होकर बढ़ती गई और सत्ता समर्थवानों ने उसे अपनाकर मनाही लगा दी। सुब्रमण्यम स्वामी की मांगों, मुद्दों पर ध्यान दीजिए। उन्होंने इस प्रकार के कई बयान दिए, जिस पर सरकार ने अपनी मुहर लगा दी।
अब भला इन एमएलसी साहब को कौन जानता था? लेकिन एक बयान से चर्चा का विषय बन गए, क्योंकि लोगों को भय है कि कहीं गंभीरता से सरकार इस पर अमल न करने लगे। समस्या यह है कि कोई भी नेता कभी भी पान मसाले, सिगरेट, बीड़ी, ड्रग्स जैसी गंभीर समस्या के लिए आंदोलन क्यों नहीं चलाया। क्यों इन्हें बैन करने की बात करता है। ये सब आज भी बाजारों में भरे पड़े हैं तथा बड़े-बड़े फिल्मी सितारे इनका विज्ञापन करते हैं। यह जानते हुए भी कि ये सब कितना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दिल्ली के अत्यंत दूषित वायु तथा पर्यावरण का कुछ हल निकालने की किसी ने पहल की। अन्य शहरों का भी बुरा हाल है। क्या नेता अपने शहरों की गंदगी, पर्यावरण के प्रति चिंतित हैं या आवाज उठाते हैं। आवाज सदैव जनता उठाती है। गंदी बहती नदियां, जिसमें हमारी पवित्र गंगा-यमुना, गोदावरी-नर्मदा भी हैं, उसके लिए कितना कार्य ये लोग कर रहे हैं? चुनाव के समय तो मात्र छह माह जनता से मांगे थे, अब तो तीन वर्ष बीत गए। शहरों, गांवों की गंदगी ज्यों की त्यों बनी हुई है। कृपया इन सब पर दृष्टिपात करिए, जनता स्वयं ही जुड़ जाएगी। खाने-पीने पर ही क्यों सारा ध्यान केंद्रित किया हुआ है? सबसे बड़ी बात, क्यों हर बैन को धर्म, संस्कृति तथा देशप्रेम से जोड़ दिया जाता है। 






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