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डॉ. भीमराव अंबेडकर का व्यक्तित्व
डॉ. भीमराव अंबेडकर का व्यक्तित्व
सुधीर कुमार    14 Apr 2017       Email   

भारतीय राजनीति व समाज के ऐतिहासिक परिदृश्य में, डॉ. भीमराव अंबेडकर का उदय एक ऐसे जननेता के रूप में हुआ, जिसने व्यक्तिगत संघर्ष की बुनियाद पर अपना सारा जीवन समाज की मुख्यधारा से विमुख, जीवनयापन कर रहे वंचितों, शोषितों, पीड़ितों व दलितों के हक की लड़ाई में समर्पित कर दिया। समग्र विकास की उनकी यह विचारधारा यानी दृष्टिकोण संविधान निर्माण के दौरान भी परिलक्षित हुई, जो समानता व सर्वकल्याण की वैचारिकी पर केंद्रित है। तत्कालीन परिस्थिति में संविधान का निर्माण निश्चय ही एक दुरुह कार्य था। ऐसे मुश्किल वक्त में बाबा साहेब ने बड़े ही धीरज के साथ प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में अपनी बेहतरीन प्रबंधन क्षमता से भावी संविधान का मसौदा तैयार कर विश्व के अनोखे संविधान के निर्माण की ओर हमारा मार्ग प्रशस्त किया। बाबा साहेब अपने आप में एक संस्था हैं। उनका व्यक्तित्व व कृतित्व आज भी देशवासियों को आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा देता है। वे एक विद्वान, विधिवेत्ता और अनेक विधाओं के ज्ञाता थे। ऐसी शख्सियत के बारे में संपूर्णतः जानना और समझना भी अपने आप में एक चुनौती है!
बाबा साहेब के अद्वितीय विद्वान बनने से पहले का उनका एक दर्दनाक इतिहास रहा है। उनका जन्म एक बहुत ही साधारण से परिवार में मध्य प्रदेश के महू में भीमावाई साकपाल और रामजी की 14वीं संतान के रूप में 14 अप्रैल, 1891 को हुआ था। अंबेडकर का संपूर्ण जीवन प्रेरणाओं से भरा हुआ है। उनका जीवन-संघर्ष देशवासियों को आगे बढ़ने में एक उदाहरण के काम करता है। दरअसल, तब ऐसी परिस्थितियां थीं, जब समाज का एक वर्ग दोयम दर्जे के व्यवहार के योग्य समझा जाता था। स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन, पेयजल जैसी तमाम बुनियादी सुविधाएं इन सबके पहुंच से दूर थीं। यह सब प्राचीन समय से ही भारतीय समाज में विद्यमान वर्ण व्यवस्था के असमान वर्गीकरण के कारण रही हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र के अलावा भी समाज में कई जातियां रहती थीं, जिसे वर्ण व्यवस्था में स्थान तक नहीं दिया गया था। ऐसी जातियों के लोगों को समाज में अछूत समझा जाता था। ऐसे समूहों का सामाजिक-आर्थिक रूप से शोषण किया जाता था।
अंबेडकर को भी इन कुरीतियों से दो-चार होना पड़ा। हिंदुओं में प्रचलित वर्ण तथा जाति व्यवस्था में व्याप्त कुरीतियों ने दृढ़ इच्छाशक्ति से संकल्पित भीमराव को संघर्ष के लिए प्रेरित किया। वे स्वयं महार नामक अछूत जाति से संबंध रखते थे। इस कारण, उन्हें उच्च वर्ग के भेदभाव और अन्याय का सामना करना पड़ा। स्वयं, उनके गांव में उनके समुदाय के लोगों को हेय दृष्टि से देखा जाता था। अंबेडकर को विद्यालय में भी सामाजिक भेदभाव व असमानता का सामना करना पड़ा। कक्षा में उसे अन्य बच्चों से अलग बैठाया जाता था। अन्य बच्चे उनसे बात तक नहीं करते थे। यहां तक कि उनपर शिक्षक ध्यान भी नहीं देते थे। बाबा साहेब का प्रारंभिक जीवन अत्यंत कठोर रहा है। सकारात्मक बात यह थी कि वे इन विपरीत परिस्थितियों के समक्ष कभी झुके नहीं। बाबा साहेब ने उच्च वर्ग की हर चुनौती को स्वीकार किया। वे यह भलीभांति जानते थे कि देश के विकास और कुरीतियों से मुक्ति का एकमात्र रास्ता शिक्षा प्राप्त करना ही है। कई कठिनाइयों के बावजूद अंबेडकर ने अपनी पढ़ाई जारी रखी। अपनी काबिलियत के बल पर उन्होंने न सिर्फ  देश के उच्च शिक्षण संस्थानों से शिक्षा ग्रहण की, बल्कि विदेशी विश्वविद्यालयों से भी एक शिक्षार्थी के रूप में जुड़े। देश-विदेश के प्रमुख कॉलेजों से शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत उसने भारतीय समाज-संस्कृति की कुरीतियों के खिलाफ  लंबी लड़ाई लड़ी। वे दलित वर्गों में शिक्षा का प्रसार और उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए काम करना चाहते थे। सन् 1926 में वे बंबई विधान परिषद के एक मनोनीत सदस्य बन गए। सन् 1927 में डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के खिलाफ  एक व्यापक आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने सार्वजनिक आंदोलनों और जुलूसों के द्वारा, पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी लोगों के लिए खुलवाने के साथ ही उन्होंने अछूतों को भी हिंदू मंदिरों में प्रवेश करने का अधिकार दिलाने के लिए भी संघर्ष किया।
आजादी की प्राप्ति तथा संविधान निर्माण के बाद देश में दलितों तथा अछूत माने जाने वाले समुदाय की स्थिति बहुत हद तक सुधरी है। संविधान में अछूत मानी जाने वाली जातियों को परिभाषित कर उन्हें एक विशेष वर्ग ‘अनुसूचित जाति’ के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। संविधान की नजर में सभी नागरिक समान हैं। संविधान के अनुच्छेद 15 में धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को अपराध घोषित किया गया है। हिंदू समाज में कलंक के रूप में व्याप्त अस्पृश्यता का अनुच्छेद-17 अंत करता है और सभी रूपों में अस्पृश्यता के व्यवहार को निषिद्ध करता है। वहीं, अनुच्छेद 26 में उपलब्ध अवसरों की समानता की बात कही गई है। इसी तरह, अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों के संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकारों की रक्षा की बात करता है। विशेष बात यह है कि आज सभी देशवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता तथा शोषण के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार प्राप्त है। इसके अलावा भी संविधान में अनेक अनुच्छेद व अधिनियमों का प्रावधान कर समाज में उनके अधिकारों की रक्षा हेतु प्रयास किए गए हैं। इसका सुफल यह है कि आज हर क्षेत्र में कमजोर तबके की हिस्सेदारी बढ़ रही है। मंदिर, तालाब तथा अन्य सार्वजनिक स्थानों पर अब उन्हें जाने की खुली छूट है।
बाबा साहेब एक ऐसे विभेद रहित समाज की स्थापना का स्वप्न देखते थे, जहां समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास की किरण पहुंचे और समाज में उनकी सहभागिता स्थापित की जाए। वे स्त्री शिक्षा के हिमायती थे। उनका कहना था कि एक समुदाय की प्रगति का माप महिलाओं द्वारा हासिल प्रगति की डिग्री से होता है। शिक्षा के प्रति उनका दृष्टिकोण व्यापक था। उनका विचार था कि शिक्षा शेरनी के समान है, जिसका दूध पीकर हर बच्चा दहाड़ने लगता है। अंबेडकर ने अपने चिंतन में किसानों की चिंता की है। बीते वर्ष इसी तिथि को प्रधानमंत्री ने ई-मंडी की शुरुआत की थी। उद्देश्य यह था कि किसानों को एक वृहद बाजार ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाए, ताकि पैदावार को बाजार तक ले जाने में किसानों की किसी भी तरह की असुविधा न हो। दुखद यह है कि एक तरफ देशभर में चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष के मौके पर अनेक आयोजन किए जा रहे हैं तो दूसरी तरफ  जंतर-मंतर पर अपनी बुनियादी मांगों के साथ कुछ किसान पिछले एक माह से प्रदर्शन कर रहे हैं। किसान केवल वोट बैंक  नहीं हैं और न ही उनके नाम पर कल्याणकारी योजनाओं के वादे, चुनावी घोषणापत्रों की शोभा बढ़ाने के लिए बने हैं, यह बात सियासतदानों को समझनी होगी। अंबेडकर जयंती को सभी राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने तरीके से मनाकर खुद को दलितों का उद्धारक साबित करने के प्रपंची प्रयास वर्षों से करती आयी हैं। दुर्भाग्य यह है कि छोटी-बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों से लेकर राष्ट्रीय पार्टियां, सभी वोट बैंक की राजनीति के तहत एक बड़े वर्ग को लुभाने के लिए उनके नाम का गलत इस्तेमाल कर रही हैं। भारतीय राजनीति की यह बड़ी विडंबना है कि यहां जाति व संप्रदाय आधारित राजनीति होती है। किसी भी मुद्दे अथवा विवाद के समाधान पर सामूहिक विचार-विमर्श के स्थान पर उसे राजनीतिक रंग देकर जाति व धर्म के परंपरागत बंधनों में बांधने की कोशिश हमारे तमाम सियासतदान करते रहे हैं। बाबा साहेब का विचार था- हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं। दुर्भाग्य यह है कि आज लोग भारत माता की जय अथवा वंदे मातरम बोलने और न बोलने को लेकर परेशान हैं। बाबा साहेब आज जीवित होते तो वे निराश जरूर होते। जिस भारत को संवारने के लिए असंख्य क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी, वहां लोग देश की एकता और अखंडता को तोड़ने पर आमदा नजर आते हैं।
आज बाबा साहेब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार व दर्शन सदियों तक लोगों को ऊर्जावान बनाए रखेंगे। जरूरी यह है कि अंबेडकर के विचार व दर्शन से युवा पीढ़ी को परिचित कराया जाए। अंबेडकर भारत रत्न हैं। वे देश के नेता हैं। उन्हें बांटा न जाए और न ही किसी सीमा में बांधा जाए। वे कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं और सदैव रहेंगे।






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