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लालू की आकांक्षा और संभावनाएं
लालू की आकांक्षा और संभावनाएं
राजनाथ सिंह ‘सूर्य’    13 Jul 2017       Email   

पूरे कुनबे सहित भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे लालू प्रसाद यादव को राहत की एक ही राह सूझ रही है, 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पराजय। ये यह जानते हैं कि यह तभी संभव है, जब बिहार और उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराया जा सके। नीतीश कुमार से अकड़ दिखाने के बाद अब वह सिकुड़ गए हैं, क्योंकि उन्हें भय है कि उनके बोझ को उतारकर नीतीश कहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में लौट न जाएं, इसिलए अब उन्हें मनाने का दायित्व लंबे अवकाश से तरोताजा होकर लौटे राहुल गांधी ने संभाल लिया है। लालू यादव और कांग्रेस दोनों ही बिहार में नीतीश कुमार को छोड़ने के परिणाम का आकलन कर जहां सिकुड़ गए हैं, वहीं उत्तर प्रदेश में औकातहीन होने के कारण उन्हें समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की एकजुटता से कुछ उम्मीद है। इसका कारण भी है। भाजपा को 1993 में दोनों दलों ने मिलकर सत्ता में लौटने से वंचित कर दिया था। तब नारा था ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’। आज यह नारा ‘मिले अखिलेश मायावती, भाजपा की होगी गुलबत्ती’’ में बदलने की चाह लेकर ही लालू यादव ने दोनों में एकता का मंत्रजाप शुरू कर दिया है। कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने के लिए पिछलग्गू ही रहना है, इसलिए यदि यह मिलन हो जाए तो आनंद ही आनंद है। लेकिन क्या सपा-बसपा या अखिलेश-मायावती की वही हैसियत है, जो 1993 में थी। तब 27 प्रतिशत पिछड़ा और 19 प्रतिशत अनुसूचित वर्ग के साथ ही लगभग 13 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता एकजुट हो गया था। आज की स्थिति में अखिलेश यादव पिछड़ों में दबदबा रखने वाले यादव समुदाय के भी नेता नहीं रह गए हैं और मायावती चमार यानी जाटव समुदाय के अलावा अन्य अनुसूचित और अत्यंत पिछड़े वर्गों का समर्थन खो चुकी हैं। मुस्लिम मतदाताओं का शिया वर्ग, सुन्नी समुदाय के साथ एकजुट नहीं रह गया है। लोकसभा के 2014 के निर्वाचन में भाजपा ने इन तीनों- पिछड़ा, अनुसूचित और मुस्लिम-वर्गों में अपनी जो पैठ बनानी शुरू की थी, वह हाल ही में संपन्न विधानसभा चुनाव में अधिक प्रभावशाली ढंग से प्रगट हुई है। शासन करने की भाजपा की जो रणनीति है, वह उसकी विश्वसनीयता को इसलिए भी स्थापित करती जा रही है, क्योंकि जिस प्रकार भ्रष्टाचार के आरोप में लालू यादव और कांग्रेस के शीर्ष नेता घिरे हुए हैं, वैसी ही सत्ता से संपन्नता प्राप्त मायावती और अखिलेश यादव के लिए भी माहौल बनता जा रहा है, दूसरी ओर न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके मंत्रियों और न ही योगी आदित्यनाथ और उनके सहयोगियों पर इस मामले में कोई अंगुली उठा पा रहा है।
इसे महज संयोग माना जाए या कुछ और कि जो लोग सत्ता से संपन्न होने की कला में माहिर हैं और अब एक के बाद एक लालू यादव के समान ही जेलोन्मुख हो रहे हैं, वे सभी मोदी के प्रति घृणा फैलाने के लिए एकजुट हो रहे हैं। लालू यादव का तो पूरा कुनबा ही इन आरोपों से घिर गया है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, कई मंत्रियों तथा आधा दर्जन सांसदों के साथ सारधा, नारधा और रोजवैली के चिटफंड घोटाले में जांच चल रही है। इनमें से कुछ जेल जा चुके हैं, बाकी जेलोन्मुखी हैं। कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व सहित कई नेता अनेक घोटालों में लिप्त होने के आरोप में अदालत का चक्कर काट रहे हैं। और नवोदित ‘मोदी विकल्प’ अरविंद केजरीवाल पूरी पार्टी सहित ऐसे घिर गए हैं कि उनकी बोलती ही बंद हो गई है। जहां तक भोंपू बजाने में माहिर वामपंथियों का सवाल है तो उनका भोंपू सड़न का शिकार होकर बेकार हो गया है। इस भाजपा विरोधी भ्रष्टता आरोपित गिरोह को ‘विपक्षी’ एकता में सभी गैर भाजपाई दलों के भी शामिल होने की उम्मीद थी, लेकिन चाहे नोटबंदी हो, राष्ट्रपति चुनाव या फिर वस्तु और सेवाकर-सभी मामलों में तटस्थ ताकतों- यथा नवीन पटनायक, राजशेखर, पवन चामलिंग या विपक्ष के साथ रहे शरद पवार या जनता दल-यू का रुख कांग्रेसनीत गठबंधन के बजाय भाजपा नीति राजग के साथ ही खड़ा दिखाई पड़ा है। बंगाल में ममता बनर्जी ने हिंदुओं के उद्वासन को मुस्लिम समर्थन के आश्वासन का संबल बनाकर चलने के कारण वहां की कांग्रेस भी केंद्रीय नेताओं के मंशा के अनुरूप ममता के साथ चलने को तैयार नहीं हैं। वशीरहार में मुस्लिम उन्मादियों के मामले में राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के हस्तक्षेप पर ममता के साथ खड़े कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के विपरीत बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष अधीरंजन चौधरी राज्यपाल के पक्ष में मुखरित होकर वही संकेत दिया है जो पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह वहां के निर्वाचन के पूर्व और बाद भी सेना के मामले में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के रुख को ठुकराकर दे चुके हैं। शरद पवार की दुविधा बनी हुई है। उनके एक विश्वस्त छगन भुजबल की सारी संपत्ति जब्त हो चुकी और वे पुत्र समेत जेल में हैं तथा भतीजे अजीत पवार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हुए हैं। चाहे लंदन में छुट्टी बिताने वाले बाप-बेटे फारूख अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला हो, या उनका ही अनुशरण करने वाले राहुल और अखिलेश अथवा आरोपों से पत्नी पुत्र सहित घिरे चिदंबरम या लालू यादव के समान जेल जा चुके करुणानिधि के कई महत्वपूर्ण सहयोगी, सभी के मामले में एक बात समान है, सत्ता में आने के बाद संपन्नता। बिना किसी आमदनी के वैभवशाली जीवन शैली वाले अखिलेश यादव और अपर संपदा की मालकिन मायावती इस खेमे में खप सकती हैं, लेकिन क्या दोनों मिलकर लालू के आशीर्वाद और कांग्रेस पिछलग्गू बने रहने की सौगात की बदौलत 2019 के निर्वाचन में भाजपा को रोक सकेंगे? भ्रष्टता से संपन्नता के मामले में समानधर्मी होने के बावजूद जो अब एक खेमे में खड़े हैं, वे अतीत में एक दूसरे के प्रबल शत्रु रह चुके हैं। सपा और बसपा में जानलेवा शत्रुता का आख्यान भी अदालत में है। ममता बनर्जी और शरद यादव ने कांग्रेस से अलग अस्तित्व क्यों बनाया? जिन वामपंथियों को गले लगाने के कारण ममता कांग्रेस से अलग हुई, वही अब उसके साथ लामबंद हैं। लालू यादव को मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में कदम नहीं रखने दिया और लालू ने मुलायम सिंह को बिहार में पैठ नहीं बनाने दिया। दोनों का राजनीतिक अभ्युदय और कांग्रेसवाद के प्रभावी होने का परिणाम है। समधी बन जाने के बावजूद राजनीतिक घृणा ज्यों की त्यों बनी हुई है। इसलिए लालू यादव पिता को किनारे बैठा देने वाले अखिलेश की पीठ ठोंक रहे हैं। मायावती अपनी विश्वसनीयता का कई बार सबूत दे चुकी हैं। 1993 से जब उनकी पार्टी को मुलायम सिंह ने सत्ता में भागीदार बनाया, तब से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव तक सपा, भाजपा और कांग्रेस तीनों ही उनकी विश्वसनीयता का स्वाद चख चुके हैं। इस समय वे असहायता की स्थिति में हैं। एक ओर वे विपक्षी दलों के खेमों में कांग्रेस और वामपंथियों की दो आंखें बनी दिखाई पड़ती हैं तो दूसरी ओर जीएसटी समारोह में शामिल होकर मोदी सरकार को रिझाती हुई भी दिखाई पड़ती हैं। इसके कारणों के विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। कांग्रेस और सपा के सभी मत यदि उन्हें मिल जाएं, जिसकी कोई गारंटी नहीं है तो भी राज्यसभा में उनका पहुंचना मुश्किल है, इसके लिए भी उन्हें भाजपा की ओर से अतिरिक्त उम्मीदवार न खड़ा करने का माहौल बनाना जरूरी है। उनकी राजनीति विशुद्ध निजीहित पर आधारित है, अब उन्होंने भाई को भी राजनीति में उतारकर कुनबावादियों के गिरोह में शामिल होने की दिशा अवश्य पकड़ी है, लेकिन सबसे प्यारी अपनी जान की कहावत को चरितार्थ करने के अपने ढर्रे से वे हटकर सहयोगी की संभावनाओं लालू यादव की अपेक्षा को पूरी करेंगी, इसकी संभावना कम ही है। लेकिन यदि अखिलेश, मायावती और राहुल गांधी में समझदारी हो भी जाती है तो उत्तर प्रदेश में बिहार जैसा राजनीतिक परिणाम नहीं हो सकता, क्योंकि इस गठबंधन के पास न तो नीतीश जैसा स्वच्छ छवि का नेता है और न उत्तर प्रदेश का मतदाता बिहार के समान हित-अहित की अनदेखी कर जातीय जकड़न में बंधा है।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य 
और वरिष्ठ पत्रकार हैं)






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