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सौरभ जैन    17 Apr 2018       Email   

देश के किसी भी हिस्से में बलात्कार की घटना होती है तो उसकी प्रतिध्वनि संपूर्ण देश में गूंजती है। हाल ही में जम्मू-कश्मीर के कठुआ और उत्तर प्रदेश के उन्नाव की घटना ने प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है। मासूम बच्चियों को भी नहीं बक्शा जा रहा। पूरा देश गुस्से में है, लोग सड़कों पर मोमबत्ती लिए न्याय की गुहार कर रहे हैं। हाथों में तख्तियां लिए लोग बलात्कार के लिए मृत्युदंड की मांग कर रहे हैं। गौरतलब है कि 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में निर्भया कांड ने समूचे देश का ध्यान आकर्षित किया था, उस समय भी यही आक्रोश सड़कों पर देखा जा रहा था। परिणामतः जस्टिस जेएस वर्मा कमिटी का गठन किया गया, जिसे महिलाओं पर हो रहे अपराधों की रोकथाम के सुझाव बताने थे। देशभर से ईमेल व पत्रों के माध्यम से सुझाव प्राप्त हुए परिणामस्वरूप एंटी रेप बिल का निर्माण किया गया। जिसमें इस प्रकार का अपराध होने पर पुलिस जीरो एफआईआर दर्ज कर जांच करेगी तथा महिलाओं पर भद्दी टिप्पणी करने, घूरने और पीछा करने पर भी कार्यवाही का प्रावधान था, लेकिन इस कानून के बन जाने के बाद भी क्या समाज में अपराधों में कमी आई।  
बलात्कार को रोकने के दो तरीके हो सकते हैं, एक तो कानूनी और दूसरा नैतिक रूप से। कानूनी पहलू के विषय पर चर्चा की जाए तो भारत में न्याय की प्रक्रिया का अत्यंत धीमा होना चिंतनीय विषय है। हाल ही के मामले पुराने हैं, किंतु स्थानीय प्रशासन और राजनीतिक दबाव के चलते मामले को दबाने का प्रयास होता रहा, यह उन सभी मामलों में होता है, जहां आरोपी रसूखदार हो। मीडिया में विषय आने पर पुलिस-प्रशासन पर दबाव बनता है और उन्हें कार्यवाही करने के लिए मजबूर होना पड़ता, लेकिन तब तक साक्ष्यों को नष्ट किया जा चुका होता है, जिसका लाभ आरोपी को मिलता है। पीड़िता को इस पूरी प्रक्रिया में मानसिक यातना से गुजरना पड़ता है। मेडिकल जांच से लेकर न्यायालय में बार-बार अपराध के विषय को तोड़ मरोड़ कर प्रश्न किए जाते। पहले ही इतनी यातनाएं सहन कर चुकी पीड़िता ऐसी स्थिति में अपना मनोबल भी नहीं संभाल पाती। फिर एक लंबी कानूनी प्रक्रिया चलती है और कई वर्षों के बाद फैसला आता है। इतने वर्ष उसकी पहचान भी उससे अलग हो चुकी होती है, वह केवल पीड़िता के नाम से ही जानी जाती है। यह तो साबित हो जाता कि कानूनी प्रक्रिया जटिल और लंबी है, इस कारण अपराधी वर्ग में जरा भी भय नहीं है, इसलिए ऐसे किस्से रोज आम हो रहे हैं। बेशक! सजा को और कठोर किया जाए, किंतु इसके साथ ही एक प्रावधान और हो कि ऐसे मामलों में आरोप सिद्ध होने पर आरोपी की आधी संपत्ति तत्काल पीड़िता को दी जानी चाहिए, पैसा सम्मान तो वापस नहीं ला सकता, लेकिन बलात्कार को रोकने में एक भय जरूर पैदा कर सकता है, जो अब तक पुलिस-प्रशासन नहीं कर पाया। राजनीति शास्त्री मैकियावेली ने कहा भी है कि इंसान अपने पिता की मौत को भूल सकता है, लेकिन अपनी संपत्ति की हानि को आजीवन नहीं भूलता।
आज समाज की स्थति इतनी भयानक है, उसका सबसे बड़ा कारण नैतिक मूल्यों का शून्य हो जाना भी है। अब तक जो कारक उत्तरदायी बताए जा रहे थे, बलात्कार के पीछे वे समस्त खोखले साबित हुए हैं। छोटे कपड़ों को दोष दिया गया, लेकिन यहां तो 8 वर्षीय बच्ची है, दोष सोच का है। नैतिक मूल्यों में संवर्धन का मार्ग आदर्शवादी और हास्यास्पद जरूर लगता है, किंतु ठोस हल इसी से निकलेगा। जब तक महिलाओं के प्रति हृदय से सम्मान के भाव अभिव्यक्त न होंगे, जब तक उन्हें पुरुषों के समतुल्य कहा नहीं, बल्कि माना जाएगा, तब तक यही स्थति रहेगी। यह मार्ग लंबा जरूर है, किंतु कारगर है। आज की पीढ़ी के मन में बचपन से संस्कारों के बीजारोपण की आवश्यकता है, ताकि यह पीढ़ी आगे जाकर नारी को भोग नहीं अपितु सम्मान की दृष्टि से देखे। अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय का प्रयास इस कड़ी में सराहनीय है, यहां गर्भवती महिलाओं के लिए संस्कार केंद्र बना हुआ है। धर्म शास्त्रों में इस बात का वर्णन है कि गर्भ में पल रहे शिशु पर आसपास की घटनाओं का प्रभाव होता है, इसीलिए इस प्रकार का नूतन प्रयोग यहां कुछ वर्षों से किया जा रहा है। 
नैतिक मूल्यों के विषय पर विचार करके दूरगामी लक्ष्य की प्राप्ति होगी, किंतु वर्तमान की स्थिति जो आज हमारे सामने है, को सुधारने के लिए एक अपराधी की मनःस्थिति समझने की आवश्यकता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण बीबीसी द्वारा बनाई गई इंडियाज डॉटर नामक डॉक्यूमेंट्री है, जिसमें निर्भया कांड के आरोपियों की सोच को बताया गया था। एक आरोपी के अनुसार, वो लड़की थी मना कैसे कर सकती थी, वो विरोध कर रही थी इसलिए बलात्कार किया। रोती गिड़गिड़ाती तो सोचते लेकिन उसने विरोध किया। यहां आरोपी की सोच संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता के अहम को स्प्ष्ट रूप में दर्शा रही है कि नारी को ना कहने का हक नहीं है, वह कमजोर है। इस सोच से जनमानस को परिचित करवाने की आवश्यकता है। हालांकि सफर लंबा जरूर है, किंतु प्रयास करने ही होंगे, केवल सरकार पर सब कुछ छोड़ा नहीं जा सकता। सोच बदलनी होगी, तभी कुछ संभव हो पाएगा।
सबसे चिंतनीय पक्ष तो इस विषय पर होने वाली राजनीति भी है। हाल ही में देखने में आया है कि राजनेता पहले की सरकारों में हुई घटनाओ के आंकड़े प्रस्तुत करने में लग जाते हैं। उनके अनुसार, पहले ज्यादा ऐसी घटनाएं होती थीं, जबकि पहले की सरकार के नेता आज की सरकार पर दोषारोपण करते हैं। इतने संवेदनशील विषय पर इस प्रकार की राजनीति होनी चाहिए। पूरा सोशल मीडिया मंच धर्म और जाति के नाम से भरा पड़ा है, लोगों की सोच बदलने से ही यह अपराध रुकेगा, लेकिन लोग अपनी सोच को गलत दिशा में ले जाने से रुक ही नहीं रहे हैं। जिस सरकार में निर्भया कांड हुआ, वे आज की सरकार के विरोध में कैंडल मार्च करने में व्यस्त हैं और तब की तत्कालीन सरकार जो उस समय विपक्ष में थी, जिसने तब खूब विरोध किया, वह आज चुप्पी साधे है। रजनी कोठारी के अनुसार, सत्ता में रहने पर दल जिन नीतियों का समर्थन करते हैं, वे सत्ता चले जाने के बाद उन्हीं नीतियों का विरोध करना प्रारंभ कर देते हैं। भारतीय दलीय व्यवस्था की सबसे बड़ी कमजोरी यही है, गलत सभी हैं, लेकिन कीचड़ एक दूसरे पर उछाल रहे हैं। ऐसे विषयों पर होनेवाली राजनीति समाधान में बाधा बनती है। लोग आपस में दलगत ढंग से उलझ कर रह जाते हैं। इससे समस्या का समाधान बाधित होता है।






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