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घायलों की मदद से कतराते हैं लोग
घायलों की मदद से कतराते हैं लोग
डॉ. राजेंद्र प्रसाद शमा    15 Apr 2017       Email   

मानवीय संवेदनहीनता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि देश की राजधानी के 85 फीसदी लोग आज भी हादसों में घायलों की सहायता में आगे आने से कतराते हैं। कानूनी प्रावधानों की सरलता व समझाइश के बावजूद लोग मौत से जूझते व्यक्ति की सहायता के लिए आगे आने में हिचकिचाते हैं। हालांकि सरकार ने कानूनी प्रावधान कर दिया है कि हादसों में घायल को अस्पताल लाने वालों को अनावश्यक रूप से परेशान नहीं किया जाएगा, वहीं हादसों में घायल व्यक्ति के अस्पताल पहुंचते ही बिना किसी कानूनी औपचारिकताओं के पहले घायल व्यक्ति के इलाज के निर्देश दिए गए हैं। सरकार ने कानूनी प्रावधान कर सहायता के लिए आगे आने वालों को प्रोत्साहित करने के प्रयास किए हैं, पर इस सबके बावजूद लोगों में कानूनी पचड़े में फंसने का डर इस कदर बैठा हुआ है कि अधिकांश लोग घायल व्यक्ति को तत्काल चिकित्सकीय सहायता पहुंचाने की पहल नहीं कर पाते हैं। हालांकि दुर्घटना स्थल पर देखने में तो यही आता है कि बहुसंख्यक लोग केवल मूकदर्शक बने रहने या दूसरों को नसीहत देने वाले ही मिलेंगे। लोग इंसान की कीमत को भूल जाते हैं, यहां तक कि यह तक नहीं समझ सकते कि उनकी एक जरा सी सजगता या सहयोग किसी की जिंदगी बचा सकते हैं तो किसी घर के दीपक को बुझने से रोक सकते हैं। 
हालांकि एम्स के ट्रामा सेंटर की यह रिपोर्ट राजधानी दिल्ली में सड़क हादसों में मरने वालों को लेकर है, पर कमोवेश यही स्थिति देश के सभी कोनों में मिल जाएगी। लाख समझाइश के बावजूद आज भी लोग हादसों में घायलों को बचाने के लिए आगे नहीं आते हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार, सड़क हादसों के घायलों में से 52 फीसदी लोग तो केवल समय पर अस्पताल नहीं पहुंचने के कारण काल के ग्रास बन जाते हैं। एम्स के दिल्ली केंद्रित अध्ययन के अनुसार, राजधानी के 85 फीसदी लोग सड़क पर घायल की मदद को आगे नहीं आते हैं, जबकि सरकार द्वारा 100 नंबर व 108 नंबर के माध्यम से तत्काल सहायता की व्यवस्था को सरकार ने प्रभावी बनाने के प्रयास किए हैं। एक जानकारी के अनुसार, 88 प्रतिशत लोगों का मानना है कि घायल को अस्पताल पहुंचाने के बाद मेडिको लीगल केस बनने पर पुलिस अस्पताल ले जाने वालों को ही गवाह बना देती है और फिर जिस तरह से हमारी न्यायिक प्रक्रिया में गवाही को लेकर चक्कर दर चक्कर लगाने के डर से आम आदमी बचना चाहता है। इसके अलावा निजी चिकित्सालयों में जिस तरह से इलाज से पहले पैसे जमा कराने की पंरपरा बनी है, उससे भी घायलों को समय पर इलाज नहीं मिल पाता और अस्पताल पहुंचाने वाला भी झंझटों में फंसने के डर से कतराने लगता है। राजधानी सहित देश में अधिकांश सड़क दुर्घटनाएं यातायात नियमों के उल्लंघन, हिट एंड रन, फ्लाई ओवरों की बनावट, सड़कों पर गड्ढों आदि का होना और लापरवाही से वाहनों के चलाने के कारण होती हैं। रात के समय दुर्घटनाओं का ग्राफ  बढ़ जाता है। हालांकि तेज रफ्तार और नशे में वाहन चलाने के कारण दुर्घटनाएं आम हो जाती हैं। दो पहिया वाहन चालकों की जिंदगी बचाने में हेलमेट की प्रमुख भूमिका होती है, पर लोग हेलमेट को बोझ समझते हैं और हेलमेट पहनते भी हैं तो अधिकांश हेलमेट मानकों के अनुरूप नहीं होते। सबसे निराशाजनक बात यह है कि बहुत से सड़क हादसों को तो केवल और केवल सड़क की दशा सुधार कर ही रोका जा सकता है। जब देश के किसी भी कोने में जब स्थान विशेष पर बार-बार हादसे होते हैं तो उसका कारण साफ  हो जाता है कि तकनीकी दृष्टि से सड़क डिजाइन में कोई खराबी है। इस सबके बावजूद उसे दूर करने का प्रयास नहीं किया जाता है। स्थान विशेष पर बार-बार दुर्घटना होते ही इंजीनियरों को कान खड़े हो जाने चाहिए, पर इस दिशा में अभी सोच विकसित नहीं हो पाई है। सवाल यह है कि जब स्थानीय प्रशासन और पुलिस प्रशासन खासतौर से यातायात प्रशासन आमने-सामने बैठते हैं तो दुर्घटना के कारणों का हल खोजा जाना चाहिए। होता यह है कि दुर्घटना स्थल पर लोगों द्वारा यातायात जाम कर दिया जाता है और फिर प्रशासन द्वारा तात्कालिक हल के रूप में उस स्थान पर स्पीड ब्रेकर बनाकर इतिश्री कर ली जाती है। सड़क दुर्घटनाओं से पीड़ित लोगों की जान बचाने की जिम्मेदारी सभ्य समाज की भी होती है। कम से कम तत्काल 100 या 108 नंबर पर फोन कर दिया जाए, थोड़ी जानकारी हो तो फर्स्ट एड दी जाए, संभव हो तो तत्काल निकटतम अस्पताल ले जाएं, टूटे अंग को छूने की कोशिश न करें, शरीर में घुसी किसी वस्तु को निकालने के स्थान पर चिकित्सकीय सहायता दिलवाने की कोशिश करें। कानूनी प्रावधानों में यह साफ  कर दिया गया है कि घायल को अस्पताल ले जाने वाले व्यक्ति को किसी तरह से परेशान नहीं किया जाएगा, वहीं यह भी स्पष्ट निर्देश है कि अस्पताल चाहे निजी हो या सरकारी, घायल को सबसे पहले चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध कराएंगे। पुलिस कार्यवाही घायल के इलाज में बाधक नहीं बननी चाहिए, यह साफ  व्यवस्था है। ऐसे में लोगों को घायलों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए तत्काल इलाज की सुविधा उपलब्ध कराने के प्रयास में आगे आना चाहिए। पुलिस और अस्पतालों को भी सहायता करने वालों को प्रोत्साहित करना चाहिए, ताकि लोगों में समझ विकसित हो, दुर्घटना के कारण किसी घर के बुझते चिराग को बचाया जा सके। घायल की मदद कर हम सही मायने में इंसानियत का परिचय दे सकते हैं।






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