स्तक मेले की सूचना आह्लाद देती है। अपने देश में पुस्तक मेलों के आयोजन बढ़े हैं। पीछे कुछ माह पहले दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में भारी संख्या थी। राजधानी लखनऊ के पुस्तक मेले में भी वातायन उत्साहवर्द्धक था। मैं पुस्तक मेले में अभिभूत हुआ। पुस्तकें सृजनधर्म का मधुमय प्रसाद हैं। मेला प्रीतिभाव है, बाजार वस्तु भाव। मेला मिलन प्रीति से खींचता है, लेकिन पुस्तक मेला की बात ही और है। पुस्तकें बुलाती हैं- आओ, हमको ले चलो अपने साथ। मन खिंचा चला जाता है पुस्तक मेले की ओर। एक नया और जीवंत समाज। पुस्तक समाज। मोटी पुस्तकें, पतली सुकुमार पुस्तकें। रंग रूप में सजी धजी सोलह सिंगार से रची पुस्तकें। खूब पढ़ी जानेवाली लोकप्रिय पुस्तकें। अतिरिक्त लोकप्रिय मगर अति अल्पकालिक प्रभाव डालने वाली पुस्तकें। तरह-तरह की विविध आयामी पुस्तकें रस शब्द से हहराती, तीखी, भीनी गंध बिखेरती हैं। प्रीतिपूर्ण नमस्कार में ही खिलती है हरेक मेले की संपूर्णता। सो पुस्तकों को प्रणाम करना हमारी स्वाभाविकता है। यह प्रणाम प्रत्यक्ष रूप में पुस्तक की काया के प्रति है, अप्रत्यक्ष रूप में उसके जीवंत संवाद, रस प्रवाह के प्रति भी है।
विश्व की सभी सभ्यताओं में पुस्तकों के आदर की परंपरा है। कुरान, बाइबिल, अवेस्ता आदि के आदर सर्वविदित हैं। इनके शब्दों का आदर है, पुस्तक रूप में भी इनका आदर है। वेद, उपनिषद््, रामायण और गीता आदि का आदर पुराना है। शब्द सबके हैं। वे सार्वजनिक संपदा हैं। लेकिन अर्थ अपने-अपने। शब्द की सामर्थ्य बड़ी है। प्रयोगकर्ता की सामर्थ्य शब्द का अर्थ खोलती है। इसलिए लेखक, कवि या साहित्यकार आदरणीय हैं। वे शब्द प्रयोग की स्वतंत्रता का लाभ उठाते हैं। अपनी अनुभूति का मधुरस जोड़ते हैं और नया संसार गढ़ते हैं। हरेक पुस्तक रचनाकार की अंतरकाया होती है। व्हाइट मैन ने ‘लांग मैन’ कविता में लिखा था- यह पुस्तक नहीं, मेरी काया है। जो इसे छूते हैं, वे एक मनुष्य को छूते हैं। वह मैं हूं, जिसे आप छू रहे हैं। मैं इन पृष्ठों से प्रकट होकर तुम्हारे हृदय में समाज जाऊंगा। तुलसी, निराला, पीबी शेली आदि के शब्द ऐसे ही हैं। शब्द उगते हैं कोमल पुष्प जैसे आकर्षक। मधुगंध उड़ेलते हैं और हृदय में पैठ जाते हैं। जैसे शब्द कमनीय और सुकुमार, वैसी ही पुस्तकें।
पुस्तकें रचनाकार की शब्द देह हैं। गांधी की ‘हिन्द स्वराज’ के शब्द हमारे हृदय में पैठे थे। हिन्द स्वराज गांधी की शब्द काया है। शब्द काया पुस्तक के कारण अमर है और शरीर नश्वर। गांधी की देह नहीं रही, अक्षर देह अक्षर, अविनाशी है। मनुष्य मर्त्य है, मनुष्य सृजित शब्द संसार अमर्त्य है। मनुष्य मरता ही है, लेकिन सृजन अक्षर-अविनाशी है। मनुष्य का अनाशवान भाग अक्षर है, शेष देह क्षरणशील और नाशवान। मनुष्य जानता है कि उसे मरना है, मृत्यु अवश्यंभावी है तो भी अमर होना चाहता है। जान पड़ता है कि मनुष्य के भीतर क्षर के साथ अक्षर तत्व भी है। क्षर जाता ही है और अक्षर अविनाशी है ही। यही अक्षर प्यास उसे अक्षर-अमर बने रहने के लिए प्रेरित करती है।
सृजन में मनुष्य का अमरत्व है। अध्ययन भी सृजन कर्म है। अध्ययन स्वयं के पुनर्सृजन की कार्रवाई है। जाने हुए का प्रवचन सृजन कार्य ही है। यहां नवसृजन के अवसर हैं और इस अनुष्ठान का मंगल उपकरण हैं पुस्तकें। पुस्तक प्रणाम बचपन का संस्कार है। प्राइमरी की पहली कक्षा में ही पुस्तक प्रणाम सिखाया गया था। प्रतिदिन पढ़ाई शुरू करने के पहले पुस्तक को सिर-माथे लगाना ज्ञान प्राप्ति की तैयारी है। अध्ययन में विनम्रता की भूमिका है। यह मस्तिष्क की ग्राह्यता बढ़ाती है। मनु ने नमस्कार सहित अध्ययन के पूर्व ओम् के उच्चारण पर जोर दिया है। पुस्तकें प्रणम्य हैं। पुस्तकों में शब्द संसार है। शब्द संसार भी वास्तविक संसार की तरह विराट है। शब्द और वाक्य संसार का वर्णन करते हैं। शब्द संसार को धारण करती है वाणी। शतपथ के ऋषि ने ठीक ही वाणी को विराट बताया है। शतपथ ब्राह्मण के रचनाकाल में पुस्तक मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी। होती तो ऋषि पुस्तकों को विराट बताते।
पुस्तकें भाषा-वाणी का जीवंत रूपायन हैं। भाषा और वाणी न होती तो सामूहिक जीवन भी नहीं होता। सुख-दुख साझा करने का कोई उपाय भी न होता। आधुनिक विश्व में पुस्तकों की अपरिहार्य महत्ता है। कल्पना कीजिए कि पुस्तकें न होतीं तो यह संसार कैसा होता? पुस्तकों के माध्यम से ही दुनिया की सारी सोच विचार प्रणाली विश्वस्तरीय बनी है। आयुर्विज्ञान में शरीर के क्षरण को रोकने और नित नूतन बनाए रखने वाले पदार्थों को रसायन कहा गया है। अध्ययन ऐसा ही ऊर्जावान रसायन है। इस रसायन का कोई विकल्प नहीं। बाकी रसायन पदार्थ हैं। अध्ययन रसायन अमरत्व रस आपूरित शब्दार्थ और यथार्थ है। ताजा वैज्ञानिक अनुसंधानों में अध्ययन को बुढ़ापाजनित बीमारियों से बचाने वाला व्यायाम कहा गया है। व्यायाम वस्तुतः शारीरिक ऊर्जा का व्यय है। नियमबद्ध व्यय ऊर्जा की रिक्त भरने के लिए प्रकृति नई ऊर्जा भेजती है। वैज्ञानिकों ने अध्ययन को भी व्यायाम बताया है। पर यह शारीरिक व्यायाम नहीं है।
अध्ययन रस अनूठा है। पुस्तक पढ़ते हुए हम परम व्योम के यात्री बन जाते हैं। ईश्वर शब्द है। न रूप, न आकार, न गुण, न गंध और न ही स्वाद। लेकिन शब्द सत्ता और भावबोध में सबको आच्छादित करता है। सबको घेरता है, सबके भीतर होता है। वह सबमें है। सब उसमें हैं। ईश्वर को हां करने का साहस नहीं है, न करने का दुस्साहस भी नहीं। दुनिया की सभी भाषाओं के शब्दकोष हैं। ऐसे सभी शब्दकोषों में सर्वाधिक शक्तिशाली शब्द है ईश्वर। ऋग्वेद के ‘अदिति’ और पुरुष के भीतर दिक्-काल है और उसके बाहर भी। ऋग्वेद अदिति अंतरिक्ष है, पृथ्वी और आकाश भी। पिता, माता, पुत्र और पुत्रियां भी है। पुरुष भी विराट है। सबको घेरकर भी तीन चौथाई अन्य लोकों तक व्यापक है। यह हुआ समूचा दिक् या स्पेस। फिर अदिति और पुरुष का ‘काल’ आच्छादन। दोनों के लिए कहा गया है- जो अबतक हो गया और जो आगे होगा, वह सब अदिति या पुरुष है। ईरानी अवेस्ता का ‘जुर्वान’ अथर्ववेद के काल यानी समय जैसा है- इस काल में मन है, प्राण है, आयु है। सारे प्रपंच काल में हैं। शब्द ईश्वर विश्व दर्शन में तर्क-वितर्क का विषय है। विज्ञान में असिद्ध है, लेकिन भावबोध में सभी सिद्धों में सिद्ध है और शब्द संसार के प्रसिद्धों में परम प्रसिद्ध। पुस्तक संसार वास्तविक संसार से भी बड़ा है। संसार के रूपों, प्रतिरूपों और भावों के आख्यान से भी विराट, लेकिन ब्रह्मांड का बड़ा हिस्सा अब भी अज्ञात है। इस अज्ञात क्षेत्र में भी अनेक रूप होंगे ही। इन रूपों के नाम अभी शब्दकोष में नहीं हैं तो भी क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि इसका भी शब्द संसार है। भारत की सभ्यता संस्कृति प्राचीन है। भारत में ज्ञान, सभ्यता और संस्कृति के प्रसार, संवर्द्धन व विकास में पुस्तकों की भूमिका है, लेकिन यहां व्यावहारिक पुस्तक संस्कृति नहीं है। हम मित्रों के जन्मदिवस पर मिठाई का पैकेट भेंट करते हैं और बच्चों के जन्मदिवस पर कोई डिब्बा पैकेट। लेकिन पुस्तकें भेंट नहीं करते। हमारा घरों में तमाम तरह की उपभोक्ता सामग्री है, लेकिन पुस्तक नहीं हैं- हैं भी तो बहुत कम।