एसा बहुत कम होता है, जब किसी सिक्के के दोनों पहलू एक साथ दिख रहे हों। यानी किसी भी उपलब्धि, स्थिति और घटना के पक्ष-विपक्ष दोनों एक ही कालखंड में भुगतना पड़े। इन दिनों लोकतंत्र कुछ ऐसी ही सम-विषम परिस्थितियों से एक ही समय एक-साथ जूझ रहा है। एक तरफ प्रचंड बहुमत की सरकारें हंै तो दूसरी ओर करीब चार फीसदी वोट पाकर कोई जीत का जयघोष कर रहा है। देश की दस सीटों पर हुए उपचुनाव के नतीजों में कश्मीर के नतीजे बेहद परेशान करने वाले हैं। एक बार फिर यहां अलगाववादियों के चुनाव बहिष्कार का असर दिखा, तभी तो सिर्फ 47926 वोट पाकर नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला लोकसभा चुनाव जीतकर दावा कर रहे हैं, जबकि उन्हें इस जनादेश से यह संदेश देना चाहिए था कि जम्मू-कश्मीर के लोग वह नहीं चाहते, जो उन्हें मिला है। क्योंकि इस चुनाव में कुल 7 फीसदी लोगों ने वोट किया है। हालांकि कश्मीर में 1989 के लोकसभा चुनाव में बारामूला और अनंतनाग लोकसभा सीटों पर इससे कम 5.7 फीसदी वोट पड़े थे। लेकिन लोकतंत्र की इस इबारत से सबक लेने के बजाय वह राज्य सरकार की बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। बीते 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी अकेले अपनी पार्टी की 283 सीट जीत कर आए थे, तब उनके विरोधियों ने इस विजय को खारिज करते हुए इसे अल्पमत की सरकार बताने में खूब बौद्धिक जुगाली की थी। हालांकि आज नरेंद्र मोदी भारत के 53 फीसदी लोगों की पसंद बन बैठे हैं। और उनकी निरंतर बढ़ती लोकतांत्रिक पहुंच से सबक लेने के जगह तमाम राजनीतिक दल गठजोड़ की सियासत कर उनका जवाब देने की तैयारी में दिख रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के निकटता के दृश्य और बयान आम हो रहे हैं। कांग्रेस भी बसपा के साथ हाथ मिलाने की रणनीति तैयार कर रही है।
नरेंद्र मोदी पंचायत से पार्लियामेंट तक अपनी पार्टी का परचम लहराने की जुगत में हैं। अमित शाह इसके रणनीतिकार हैं। भारतीय लोकतंत्र में बहुधा सत्ता और सरकार के बीच उलट रिश्ते रहे हैं। सर्वोच्चता को लेकर तमाम किससे, कहानियां और रार सामने आते रहे हैं। शायद यह पहला अवसर है कि सत्ता और सरकार के बीच के दो शख्स एक-दूसरे के लिए इस हद तक मुफीद हैं कि रार और टकरार तो दूर, किस्से-कहानियों के लिए भी जगह नहीं बन पा रही है।
लोकतंत्र में सत्ता की कोशिश होती है कि संगठन उसकी चेरी रहे। यही वजह है कि संगठन पर काबिज होने अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव को अपदस्थ करते हैं। मायावती अपनी पार्टी के सबसे ताकतवर उपाध्यक्ष के पद पर अपने भाई आनंद को बिठा देती हैं। वह भी तब, जब समाजवाद के प्रतीक पुरुष डॉ. लोहिया एक व्यक्ति-एक पद के कायल रहे। मायावती निरंतर यह घोष करती रही हैं कि उनके परिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं आएगा। पर अपने इस तरह के पुराने उद्घोषों को दरकिनार कर उस बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के जन्मदिन पर अपने भाई को उत्तराधिकारी बनाया, जिन्होंने ताउम्र खुद को पारिवारिक उत्तराधिकार से मुक्त रखा। पता नहीं उनको श्रद्धांजलि देने का मायावती का यह कौन-सा तरीका था।
कांग्रेस मां-बेटे की पार्टी से ऊपर नहीं उठ पा रही है। जद-यू, भाजपा और आप को छोड़ दिया जाए तो कोई भी राजनीतिक दल नेतृत्व के लिए परिवार की परंपरा से ऊपर नहीं निकल पा रहा है। हालांकि, भाजपा भी अपना दल और भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी सरीखे परिवारवादी दलों को दाना-पानी मुहैया करा रही है। लोकतंत्र के विसंगति और संगति के यह भी कुछ दृश्य हैं। इन दिनों लोकतंत्र भारत में नए अर्थ ग्रहण कर रहा है। जिसमें जातिवाद के घटाटोपी आवरण में विकास की उम्मीदें उगाई जा रही हैं। पुराने पड़ चुके लोग हाशिये पर डाले जा रहे हैं। भाजपा के पोस्टर से आडवाणी, जोशी और अटल इतिहास हो गए हैं। सपा की होर्डिंग्स पर मुलायम सिंह खोजे नहीं मिल रहे हैं। कांग्रेस ने खुद को इंदिरा, राजीव और नेहरू से इतर लाकर खड़ा कर दिया है। नरेंद्र मोदी भाजपा के लिए नए प्रतीक पुरुष जुटा रहे हैं। अंबेडकर उत्तराधिकार के दावे और प्रतिदावे के शिकार हो रहे हैं। सियासत में जातियों ने भले ही लोकतंत्र को जकड़ रखा है, पर चार तरह के यानी अगड़े, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक नए खांचे बने हैं। इन्हें नया वोटबैंक कह सकते हैं। बड़ा नेता वही है, जो अपनी जाति का होकर भी इनमें से किसी एक अथवा एक से अधिक संदर्भ को संदेश देने में कामयाब हो सके। वामपंथ और मध्यमार्ग को धुर दक्षिणपंथ विस्थापित कर रहा है। राजनीति से धर्म को निरंतर अलग रखने की कोशिश धर्म और राजनीति के नए प्रसंग और संदर्भ दे रही हैं। तुष्टीकरण के लक्ष्य और मायने बदल रहे हैं।
कुछ नए वोटबैंक भी आकार ले रहे हैं। राजनीति अस्सी बनाम 20 फीसदी की ओर जा ही है। बीस फीसदी में भी आधी आबादी का दर्द लोकतंत्र की शक्ल कैसे ले, इसकी कोशिशों को अंजाम मिलने लगा है। आवाज मिलने लगी है। अपनी खबरों को लेकर निरंतर खारिज होता आ रहा चौथा स्तंभ सोचने पर विवश है। चुनाव परिणाम से लेकर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम, अफसरों की तैनाती सहित तमाम खबरों पर निरंतर खारिज हो रहे चौथे स्तंभ को भी सोचना होगा। कागजों पर निकल रहे तकरीबन ढाई लाख अखबारों का पंजीकरण खारिज कर सरकार ने यह बताया है कि उसका विषय लोकतंत्र की संगति और विसंगति होनी चाहिए। एक ही कालखंड में लोकतंत्र ढेर सारे सवालों पर इतने विरोधाभासी दृश्यों से पहली बार गोचर हो रहा है। इन सब का घटित होना, इनके अर्थ और अनर्थ का निकलना यह बता रहा है कि संक्रमण के दौर से गुजर रहा हमारा लोकतंत्र तप रहा है, पक रहा है। हमें उसे समय देना होगा।