प्रबंध शास्त्र में एक स्थान पर यह पढ़ने को मिला था कि जनवाद की विचारधारा का मुंह यदि अपनी ओर मोड़ना हो तो भले ही आपका तात्कालिक निर्णय कइयों के गले न उतरे पर दीर्घकालिक नतीजे गुणोत्तर में होने चाहिए। ठीक इसी तर्ज पर मौजूदा सरकार चला रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के निर्णय और उसमें छिपे भविष्य के नतीजे जांचे-परखे जा सकते हैं। विदित हो कि बीते दिनों एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद के लिए बिहार के गवर्नर, अब इस्तीफा दे चुके रामनाथ कोविंद को चुना गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि राष्ट्रपति के उम्मीदवार को लेकर बीते कुछ दिनों से जो भी कयास चल रहे थे, उन सभी पर विराम लगाते हुए एक बार फिर मोदी के निर्णय ने सभी को चौंका दिया। रामनाथ कोविंद का नाम जैसे ही फलक पर आया सियासत का बाजार भी गरम हो गया। विपक्षियों की सरगर्मी भी तेज हुई, साथ ही आगे की रणनीति को लेकर अटकलें भी लगाई जाने लगी। दलित के बदले दलित उतारने की कवायद भी जोर पकड़ने लगी, जिसमें पूर्व स्पीकर मीरा कुमार का नाम हवा में तैरने लगा। हालांकि अभी विपक्ष के पूरे पत्ते नहीं खुले हैं, परंतु यदि पत्ते खुलते भी हैं तो भी एनडीए में बेचैनी कम ही होगी, क्योंकि कुछ पत्ते पहले से ही बिखरे और खुले हुए हैं। देखा जाए तो मोदी से बरसों से खार खाए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने समर्थन देने से मना नहीं किया है। घोषणा के दिन से भौहें ताने बैठे उद्धव ठाकरे भी अब साथ खड़े हैं। टीआरएस भी समर्थन का संकेत कर चुकी है, जबकि उड़ीसा के नवीन पटनायक साथ होने का एलान पहले ही कर चुके हैं। चुनाव की राह में रोड़े अधिक नहीं हैं, पर शिकायत तो कइयों की बहुत है। बहुजन समाज पार्टी मुखिया मायावती दलित चेहरे की स्थिति को देखते हुए मना तो नहीं कर पाई हैं, पर असमंजस से जरूर गुजर रही होंगी। वामपंथ की शिकायत यह है कि उम्मीदवारी के मामले में निर्णय एकतरफा है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी असंतोष व्यक्त कर रही हैं। हालांकि मामला इतना टेढ़ा नहीं है कि रामनाथ कोविंद के विरोध में नतीजे आए, पर मोदी समेत एनडीए का इरादा कुछ और ही है।
देखा जाए तो राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर आंकड़े एनडीए की ओर झुके हुए दिखाई देते हैं, पर एनडीए का मानना है कि सर्वसम्मति से बात बने तो अच्छा रहेगा। मोदी ने राष्ट्रपति पद के लिए जिस चेहरे को उतारा है, उसे लेकर कई अपने सियासी गुणा-भाग में लगे होंगे। आगे की राजनीति कठिन न हो इसका भी ख्याल उनके मन में आ रहा होगा। लगभग सभी दलों के सियासी गुणा-भाग में दलितों का काफी महत्व देखा जा सकता है, जिसे देखते हुए लगता है कि विपक्षी भी विरोध आसानी से नहीं कर पाएंगे। खास यह भी है कि रामनाथ कोविंद यदि राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो यह यूपी के पहले राष्ट्रपति होंगे। जाहिर है, आधा दर्जन प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश के लिए भी यह गौरव से भरा संदर्भ होगा। जिस तर्ज पर एनडीए ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित किया, उसे राजनीति का मास्टर स्ट्रोक ही कहा जाएगा। रामनाथ कोविंद जिस उत्तर प्रदेश से संबंधित हैं, वहां 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 के मुकाबले 73 सीटें और फरवरी 2017 के विधानसभा चुनाव में 403 के मुकाबले 325 स्थान एनडीए के खाते में हैं। जाहिर है, 2019 के लोकसभा चुनाव में इसे वो दोहराना चाहेगी। ऐसे में रामनाथ कोविंद का उत्तर प्रदेश का होने के साथ दलित चेहरा होना रास्ते को आसान बनाता है। राष्ट्रपति के उम्मीदवार के रूप में कोविंद को तय करके मोदी ने न केवल लोगों को चौंकाया है, बल्कि विरोधियों को कुछ भी बोलने से पहले दस बार सोचने के लिए मजबूर भी किया है। ऐसा नहीं है कि मात्र दलित चेहरे के चलते ही रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी तय हुई है। उनके कार्यप्रणाली को परखा जाए तो काबिलियत भी कम नहीं है। रामनाथ कोविंद हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट के बेहद कामयाब वकील रहे हैं। सामाजिक जीवन में सक्रियता के लिए जाने जाते हैं। 1994 में राज्यसभा के लिए भी चुने जा जुके हैं और लगातार दो बार उच्च सदन के सदस्य रहे हैं। गौरतलब है कि अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी के युग में कोविंद भाजपा के सर्वाधिक बड़ा चेहरा माने जाते थे। एक सामाजिक कार्यकर्ता और साफ छवि के राजनेता कोविंद संयुक्त राष्ट्र में भारत का प्रतिनिधत्व भी कर चुके हैं। यह वाकया अक्टूर 2002 का है, जब उन्होंने यहां संबोधन दिया था। 8 अगस्त, 2015 से राष्ट्रपति के उम्मीदवार घोषित किए जाने के दो दिन बात तक वे बिहार के राज्यपाल रहे।
सबके बावजूद इस प्रश्न को भी टटोलना सही रहेगा कि क्या रामनाथ कोविंद की राष्ट्रपति की उम्मीदवारी को लेकर एनडीए में सब कुछ ठीक-ठाक है। राष्ट्रपति के इस चुनाव के दौर में एनडीए के अंदर भी मौन शोर इस बात के लिए होगा कि आडवाणी समेत कई कद्दावर क्यों दरकिनार किए गए। गौरतलब है कि बीते दिनों शत्रुघ्न सिन्हा ने लालकृष्ण आडवाणी को इस पद के लिए सबसे बेहतर बताया था। हालांकि अब जब उम्मीदवारी का पिटारा खुल चुका है तो उम्मीद रखने वालों के हाथ मायूसी ही आई होगी। बताते चलें कि साल 2013 के सितंबर में जब भाजपा के अध्यक्ष रहे राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया था, तब भी भाजपा समेत एनडीए के खेमे में काफी उथल-पुथल हुई थी। प्रधानमंत्री की उम्मीद लगाए बैठे लालकृष्ण आडवाणी को इस फैसले से झटका लगा था। फिलहाल मायूसी का घूंट पीकर आडवाणी वयोवृद्ध नेता के तौर पर अपनी भूमिका में अभी भी बने हुए हैं, पर इस मलाल से शायद ही वे बेफिक्र होंगे कि एक बार फिर मोदी और शाह ने उन्हें झटका दिया है।
भाजपा कोविंद के बहाने अपनी सियासी पकड़ और मजबूत करने की फिराक में है। दलित चेहरा चुनने का रास्ता अख्तियार करके जाति की राजनीति और उसकी नब्ज को मजबूती से पकड़ने की कवायद फिलहाल देखी जा सकती है। हालांकि भाजपा इस आरोप को जरूर खारिज कर देगी और वह इस बात की वाहवही लेना चाहेगी, कि उसने एक दलित को राष्ट्रपति बनाने का काज किया है, नकि जातिगत राजनीति की है। सच तो यह है कि एनडीए में यहां तक कि केवल भाजपा में ही कोविंद के मुकाबले राष्ट्रपति के लिए दर्जनों उम्मीदवारों की लंबी फेहरिस्त है, पर वे 2019 के लोकसभा में तुरुप का इक्का सिद्ध नहीं हो सकते थे, ऐसे में उनका दरकिनार होना स्वाभाविक था। बावजूद इसके इस बात के लिए भी संतोष होना चाहिए कि लोकतंत्र का ही कमाल है कि कोई भी उच्चतम पदों तक पहुंच सकता है। हालांकि खेल का अभी पूरा खुलासा नहीं हुआ है। अगर विपक्ष एकजुट होता है, जिसकी गुंजाइश कम ही है और कोई दमदार उम्मीदवार मैदान में उतारता है तो मुकाबला भी रोचक होगा। दो टूक यह भी है कि भाजपा अभी भी आराम की स्थिति में नहीं है। सर्वसम्मति से यदि राष्ट्रपति का चुनाव संभव होता है तो ऐसा दूसरी बार होगा। इसके पहले 1977 से 1982 तक राष्ट्रपति रहे नीलम संजीवा रेड्डी निर्विरोध चुने जा चुके हैं। फिलहाल अभी यह देखना बाकी है कि राष्ट्रपति की उम्मीदवारी वाले फैसले से कहीं भाजपा में आंतरिक फासला तो नहीं बढ़ रहा है। सबके बावजूद यह तय है कि आगामी जुलाई में देश एक नए महामहिम से परिचित होगा।