बरसों की कवायद के बाद आखिरकार जीएसटी आज धरातल पर उतर गया। संभव है कि तमाम महत्वाकांक्षी अवधारणा से पोषित आर्थिक परिवर्तन का गुणात्मक पक्ष लिए जीएसटी देश की तस्वीर बदल देगा। गौरतलब है कि वर्ष 2014 के शीत सत्र से जीएसटी को लेकर आंख मिचौली चल रही थी। हालांकि इसकी कहानी एक दशक पुरानी है, पर बीते तीन वर्षों में इसे लेकर जो कोशिशें मोदी सरकार में हुईं, वैसी शायद पहले नहीं हुई थीं। वर्ष 1991 में जब उदारीकरण देश में आया, तब भी देश बदलने की आस जगी थी और उस पर वह खरा भी उतरा। जाहिर है, ढाई दशक बाद यह दूसरा परिप्रेक्ष्य है, जब एक बार फिर आर्थिक परिवर्तन की उम्मीद जीएसटी के चलते जगी है। देश में गुड्स एवं सर्विसेज टैक्स यानी जीएसटी लागू होने को स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक कदम भी माना जा रहा है। गौरतलब है पिछले कुछ महीनों से राजनीति के क्षितिज पर जीएसटी ही छाया रहा और अब पहली जुलाई को लागू होने के साथ इसका पटाक्षेप तो हो जाएगा, पर इसके नतीजे को लेकर चर्चाओं का बाजार शायद अभी थमने वाला नहीं है। जब 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी का एक बड़ा आर्थिक फैसला मोदी सरकार की ओर से आया था, तब भी देश की राजनीति में भूचाल और जनमानस में कई प्रकार की हलचलों का दौर था। बाद में आई रिर्पोटों से यह भी परिलक्षित हुआ कि देश के विकास दर की रफ्तार थमी है, परिणामतः जीडीपी में एक फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। हालांकि सरकार इसकी वजह नोटबंदी को नहीं मानती। फिलहाल पूरे देश में एक समान कर प्रणाली लागू करने का सपना जीएसटी के माध्यम से पूरा हो गया है, साथ ही अप्रत्यक्ष कर प्रणाली में ऐतिहासिक बदलाव के साथ इसे अंजाम तक पहुंचा भी दिया गया है। इतना ही नहीं आने वाले दिनों में जब भी सरकारों की सियासत परवान चढ़ेगी तो जीएसटी लागू करने के लिए मोदी का नाम सुर्खियों में जरूर रहेगा।
जीएसटी के क्या फायदे हैं और क्या नुकसान हैं, इसकी चिंता भी खूब होती रही है? इसे लेकर बीते कुछ महीनों से आंकड़े और सूचनाएं भी परोसी जाती रही हैं। सरकार भी इसे लेकर काफी सफाई देती रही। स्पष्ट है कि सरकार दो तरह के कर लेती है, जिसे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष के तौर पर जाना जाता है। आयकर प्रत्यक्ष तो किसी समान या सेवा पर लगाया गया कर अप्रत्यक्ष की श्रेणी में माना जाता है। कमाई भी अप्रत्यक्ष कर में अधिक है और इसका एक हिस्सा राज्यों को भी देना होता है, लेकिन इसकी अपनी एक दिक्कत यह है कि कई समानों पर अप्रत्यक्ष करों की दरों में एक राज्य से दूसरे राज्यों में व्यापक अंतर था। इसी को समाप्त करते हुए इसे एक रूप दिया गया और इसका नारा है एक राष्ट्र, एक कर। राहत यह है कि इस कर से रोजमर्रा के खाने-पीने के समान को मुक्त रखा गया है। जाहिर है, यहां बदलाव सस्ते की ओर है, परंतु कई ऐसे क्षेत्र हैं, जहां पर करों में फेरबदल का पूरा असर है। टेलीकॉम, रेस्टोरेंट में खाना खाना, हवाई टिकट समेत अस्पताल, बीमा, बैंकिंग आदि पर इसका प्रभाव महंगा दिखेगा। शिक्षा पर कोई कर नहीं है, पर कोचिंग की शिक्षा पर तुलनात्मक तीन फीसदी बढ़त से यह क्षेत्र महंगा हुआ है। देखा जाए तो जीएसटी 5 फीसदी से लेकर 28 फीसदी के बीच है। जाहिर है, कर के उतार-चढ़ाव के चलते कुछ सस्ती तो कुछ महंगी वस्तुएं बाजार में देखने को मिलेंगी। उदारीकरण के बाद से भारत की अर्थव्यवस्था में व्यापक फेरबदल देखने को मिला था। तब देश के वित्त मंत्री पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह थे, जो जीएसटी को लेकर हमेशा सकारात्मक राय रखते रहे। ये बात और है कि प्रमुख विपक्षी कांग्रेस मोदी की इस नीति से चार कदम की दूरी अभी भी बनाए हुए हैं, जबकि जीएसटी वर्ष 2006-07 के बजट में यूपीए के कार्यकाल में ही पहली बार प्रस्तावित किया गया था। क्या जीएसटी को लेकर किसी को इतना भी नुकसान है कि बड़ी हड़ताल देश में की जाए। बीते गुरुवार को जीएसटी के विरोध में कपड़ा व्यापारी सड़क पर हैं। गौरतलब है कि कपड़े पर 5 फीसदी जीएसटी लगाने का विरोध किया जा रहा है। इनका मानना है कि 70 साल के इतिहास में कभी भी कपड़े पर कोई टैक्स नहीं लगा। यहां यह बात स्पष्ट करने में सरकार शायद सफल नहीं रही कि 5 फीसदी का कर तुलनात्मक कई करों से कम ही है, पर यदि ऐसा नहीं है तो सभी वर्गों को यह प्रभावित करेगा। दो टूक यह भी है कि जीएसटी को लेकर सरकार की रणनीति प्रसारवादी कम रजानीति से प्रेरित अधिक रही है। दूसरे शब्दों में कहें तो राज्य की सरकारों को केंद्र सरकार विश्वास में लेती रही, जबकि जनमानस सहित तमाम कारोबारी और व्यापारी के मामले में यह जहमत नहीं उठाई। शायद उसी का नतीजा कपड़ा व्यापारियों की हड़ताल है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आने वाले दिनों में हो सकता है सरकार को इस तरह की दिक्कतें और झेलनी पड़ें। सवाल यह भी है कि क्या जीएसटी एक जोखिम भरा कदम है, यदि है तो इसके लागू होने के कुछ समय बाद ही पता चलेगा। देश इससे कितना मुनाफा ले सकता है। जाहिर है, पहली जुलाई से लागू जीएसटी भारत की आर्थिक दुनिया को नया मोड़ देगा, पर कई मोड़ धुंध से भी घिरे हो सकते हैं, जैसा कि विश्व के तमाम देशों में लागू जीएसटी वाले देशों की पड़ताल बताती है।
गौरतलब है, दुनिया के सैकड़ों देश अब तक जीएसटी को अपना चुके हैं। इस सूची में अब भारत भी शामिल हो गया है। आंकड़े इस बात का समर्थन करते हैं कि बहुतायत की स्थिति शुरुआती दिनों में सुखद नहीं रही है। पड़ताल बताती है कि एशिया के 19 देशों में इसी प्रकार के कर प्रावधान हैं, जबकि यूरोप में तो 53 देश इसमें सूचीबद्ध हैं। इसी प्रकार अफ्रीका में 44, साउथ अमेरिका में 11 समेत दुनिया भर में सौ से अधिक देश इसमें शुमार हैं। रोचक यह भी है कि जीएसटी को लागू करने वाली कई सरकारों की आगामी चुनाव में वापसी नहीं हुई, यानी जीएसटी भी एंटी इन्कम्बेंसी का काम करती है। देखा जाए तो ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जापान और सिंगापुर जैसे देशों ने 1991 से 2000 के बीच जीएसटी को लागू किया, पर जीडीपी में गिरावट का दौर चला। सिंगापुर जैसे देशों की गिरावट तो कहीं अधिक नकारात्मक थी। मलेशिया में 2015 में जीएसटी लागू हुआ था, यहां भी गिरावट दर्ज तो की गई, पर वापसी करने वाले देशों में यह सर्वाधिक शीघ्रता के लिए भी जाना जाता है। हालांकि जिन देशों ने जीएसटी अपनाया और जिनकी हालत शुरुआती दिनों में उम्मीद से अधिक खराब हुई, उसके पीछे एक कारण टैक्स स्लैब भी माना जा सकता है। साथ ही इन देशों की जनसंख्या और आर्थिक संदर्भ व संसाधन भी काफी हद तक जिम्मेदार रहे हैं। भारत जनंसख्या के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है, साथ ही यहां की आर्थिकी औरों की तुलना में भिन्न और काफी हद तक स्थायित्व लिए हुए है। ऐसे में जीएसटी का जीडीपी पर बहुत अधिक असर न होने का अनुमान तो है, पर असर नहीं होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। परिप्रेक्ष्य यह भी है कि भारत में टैक्स स्लैब चार प्रकार के हैं, साथ ही कुछ वस्तुओं को इससे मुक्त भी रखा गया है, जबकि तमाम देशों में टैक्स स्लैब एक ही थे और कर की दर भी कम थी, मसलन ऑस्ट्रेलिया में 10 फीसदी था। अंततः जीएसटी की उड़ान से कर चोरी घटेगी, ईमानदार कारोबारियों को लाभ मिलेगा, बार-बार कर चुकाने के झंझट से मुक्ति भी मिलेगी और एक राष्ट्र, एक कर की भावना से राष्ट्रीय एकता और अखंडता को तुलनात्मक कहीं अधिक बल भी मिलेगा।