इतिहास पढ़ने का एक लाभ यह है कि हमें अतीत की घटनाओं को समझने-बूझने का न केवल अवसर मिलता है, बल्कि उन परंपराओं, संस्कृतियों और सभ्यताओं की भी जानकारी मिलती है, जो सदियों पहले इसी धरातल पर किसी न किसी रूप में उपस्थित थी। दो टूक यह भी है कि सदियों से इतिहास के बनने-बिगड़ने की परंपरा भी इसी धरती पर रही और सभी के लिए अवसर भी कमोबेश यहां घटते-बढ़ते देखे गए। ऐसे ही एक ऐतिहासिक घटना तब घटी, जब प्रधानमंत्री मोदी ने इजरायल दौरा किया। दोनों देशों के बीच रिश्तों की जो तुरपाई हुई, उसे दुनिया ने खुली आंखों से देखा। मोदी की इजरायल यात्रा बीते 4 से 6 जुलाई के बीच संपन्न हुई। खास यह है कि जिस शिद्दत के साथ मोदी का इजरायल में स्वागत हुआ और जिस प्रकार तीन दिन तक मोदी ने देशाटन और तीर्थाटन किया, वह भी गौर करने वाली है। मित्रता की प्यास से अभिभूत इजरायल भारत का बीते सात दशकों से इंतजार कर रहा था। बेशक चार दशकों तक दोनों के बीच कोई राजनयिक संबंध नहीं था, पर बीते ढाई दशकों से कूटनीतिक संबंध कायम रहे और अब मुलाकात पक्की दोस्ती में तब्दील हो गई। हिंदी और हिब्रू के बीच की यह मुलाकात इतिहास के पन्नों में जरूर दर्ज की होगी। गौरतलब है, इजरायल यहूदी धर्म की मान्यता से पोषित है और हिब्रू भाषा का पोषक है। हालांकि दोनों देशों के बीच मुलाकात पहले हुई हैं, पर कोई भी भारतीय प्रधानमंत्री इजरायल नहीं गया था। कहा जाता है कि जब मन अपना भी हो और फायदा भी दिखता हो तो रिश्ता बनाने में पीछे क्यों रहें और वह भी तब जब मौजूदा समय में चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों से हमारा संबंध छत्तीस के आंकड़े को भी पार कर चुका हो। दोनों पड़ोसी की तानाशाही और जुर्रत को देखते हुए इजरायल में भारत के मोदी का प्रवेश बिल्कुल सही लगता है। जाहिर है, सुरक्षा के लिए हथियार और मनोबल बढ़ाने के लिए धरातल पर एक और मित्र तैयार करना हर हाल में राष्ट्र के लिए शुभ ही है।
मोदी बीते तीन वर्षों में 65 से अधिक देशों की यात्रा कर चुके हैं। चीन और पाकिस्तान को छोड़ दिया जाए तो किसी से हमारी कूटनीति असंतुलित नहीं प्रतीत होती। गौरतलब है, इतिहास रचने और जोखिम लेने में मोदी काफी आगे रहे हैं। इसी तर्ज पर इजरायल की यात्रा भी देखी जा सकती है। इस यात्रा के बाद संभव है कि वैश्विक कूटनीति भी बदलेगी और देश की रक्षात्मक तकनीक भी सुधरेगी। बीते 5 जुलाई को मोदी ने अपने समकक्ष बेंजामिन नेतन्याहू से सात द्विपक्षीय समझौते किए जिसमें 40 मिलियन डॉलर के भारत-इजरायल इंडस्टि्रयल एंड टेक्नोलॉजिकल इनवेंशन फंड भी शामिल हैं। स्पष्ट है कि दोनों देश इस फंड के माध्यम से उक्त क्षेत्र में व्यापक सुधार को प्राप्त कर सकेंगे। इजरायल दौरे की खासियत यह रही कि जो समझौते हुए वे भारत के लिए मौजूदा समय में कहीं अधिक प्रासंगिक हैं। मसलन जल संरक्षण, जल प्रबंधन, गंगा नदी की सफाई, कृषि के क्षेत्र में विकास समेत छोटे सैटेलाइट को बिजली के लिए प्रयुक्त करने आदि। गौरतलब है कि इजरायल 13 ऐसे मुस्लिम देशों से घिरा है, जो उसके कट्टर दुश्मन हैं और बरसों से इनसे लोहा लेते-लेते तकनीकी रूप से न केवल दक्ष होता गया, बल्कि सभी सात युद्धों में वह सफल भी रहा। मोदी इजरायल के जिस सुइट में ठहरे थे, वह दुनिया का सबसे सुरक्षित ठिकाना माना जाता है। इस पर बमों की बरसात, रासायनिक हमला या किसी भी प्रकार मानवजनित या प्राकृतिक आपदा हो पर उस पर कोई असर नहीं होता। जाहिर है, यह इजराइल की सुरक्षित और पुख्ता ताकत ही है। इजरायल की तकनीक इतनी दक्ष है कि आतंकी भी इसकी तरफ देखना पसंद नहीं करते।
देखा जाए तो प्रत्येक दौरे की अपनी सूझबूझ होती है, इजरायल दौरा भी इससे अलग नहीं है। भारत ने जिस प्रकार इजरायल से प्रगाढ़ता दिखाई है, जाहिर है उसका असर अमेरिका जैसे मजबूत देश को सकारात्मक महसूस हुआ होगा, जबकि पाकिस्तान तथा चीन को यह कहीं अधिक चुभा होगा। गौरतलब है कि इन दिनों सिक्किम के डोकलाम को लेकर चीन भारत को आंख दिखा रहा है, 1962 की याद दिला रहा है। हर वह हथकंडे अपनाने की फिराक में है, जिससे भारत को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर किया जा सके। 6 जुलाई को चीन की ओर से यह भी कह दिया गया कि 7-8 जुलाई को जर्मनी में होने वाले जी-20 के सम्मेलन में जिनपिंग और मोदी की मुलाकात नहीं होगी। इतना ही नहीं चीन 51 सौ मीटर ऊंचे पहाड़ी पर टैंक युद्धाभ्यास करके भारत को दबाव में लेने की कोशिश भी कर रहा है। चीन की इस कलाबाजी से फिलहाल भारत वाकिफ है। ऐसे में भारत का इजरायल में प्रवेश किया जाना कूटनीतिक और रक्षात्मक दृष्टि से बिल्कुल उचित है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन, पाकिस्तान व फिलीस्तीन समेत कुछ खाड़ी देश इस बात से चिंतित हो रहे होंगे कि भारत, अमेरिका और इजरायल तीनों मिलकर दुनिया में एक मजबूत ध्रुव बन सकते हैं। गौरतलब है कि अमेरिका दुनिया का शक्तिशाली देश, इजरायल सर्वाधिक तकनीकी हथियारों से युक्त देश, जबकि भारत न केवल उभरती बड़ी अर्थव्यवस्था बल्कि बड़े बाजार का मालिक भी है। चीन अच्छी तरह जानता है कि उसका भी बाजार भारत के बगैर पूरा नहीं होता, परंतु विवाद और बाजार दोनों पर चीन एकतरफा नीति अपनाना चाहता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि मोदी का इजरायल वाला मास्टर स्ट्रोक इजरायल को तो मनोवैज्ञानिक बढ़त दे ही रहा है, परस्पर ऊर्जा भारत को भी मिल रही है। विश्व के बीस देश 12वें जी-20 सम्मेलन में इकट्ठे हो रहे हैं। इस बार विश्व में जहां अशांति, राजनीतिक उथल-पुथल और व्यापारिक मतभेद चल रहे हैं, वहीं कूटनीतिक समीकरण भी बदले हैं। जाहिर है, जी-20 पर कई समस्याओं का साया रहेगा। जिनपिंग और मोदी के दूर-दूर रहने से यह और गाढ़ा होगा। चीन की मनमानी भारत बर्दाश्त नहीं करेगा और चीन अपनी ताकत पर घमंड करना नहीं छोड़ेगा। निदान क्या है, आगे की नीति और कूटनीति के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल यही कहा जा सकता है कि विश्व में बह रही धारा प्रवाह कूटनीति में कभी न कभी ऐसी धारा फूटेगी, जो सभी को शांत और साझीदार बना देगी। जिस तर्ज पर भारत और इजरायल ने ऐतिहासिक साझेदारी की है, यदि उसका क्रियान्वयन उचित मार्ग से चला तो भारत, पाकिस्तान और चीन को संतुलित करने में काफी हद तक सफल होगा। क्षेत्रफल में भारत के मिजोरम प्रांत के लगभग बराबर और जनसंख्या में मात्र 83 लाख वाला इजरायल ने जिस कदर दुश्मनों से लोहा लिया और जिस रूप में अपना सुरक्षा कवच तैयार किया है, वह भी भारत को बहुत कुछ सिखाता है। ध्यान्तव्य हो कि भारत ने इजरायल को 1950 में मान्यता दी थी, परंतु राजनयिक संबंध नहीं कायम किए। इसका प्रमुख कारण भारत द्वारा फिलीस्तीनियों को दिया जाने वाला समर्थन है। इसके पीछे भारत की कुछ प्रतिबद्धताएं भी थीं। भारत यद्यपि तटस्थ देश है, फिर भी उसका झुकाव सोवियत रूस की ओर था, जबकि इजरायल अमेरिका की ओर झुका था, बावजूद इसके संबंध बने रहे, साथ ही आतंक से जूझने वाले भारत को इजरायल का साथ मिलता रहा, अब तो संबंध परवान चढ़ने से आतंकियों का शरणगाह पाकिस्तान भी छटपटा रहा होगा। पाकिस्तानी मीडिया की भी मोदी और बेंजामिन की मुलाकात पसीने छुड़ा रही है। इसके अलावा दुनिया के अन्य टीवी चैनलों और अखबारों में भारत और इजरायल की मुलाकात को अलग-अलग दृष्टिकोणों से न केवल देखा जा रहा है, बल्कि आगे की राह क्या होगी, इस पर भी चर्चा जोरों पर है।