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अपने शरीर पर है औरत का अधिकार
अपने शरीर पर है औरत का अधिकार
जाहिद खान    07 Jul 2017       Email   

सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक अहम फैसला सुनाते हुए एक महिला को अपने 26 हफ्ते पुराने भ्रूण का गर्भपात कराने की इस आधार पर इजाजत दे दी कि गर्भ में पल रहे बच्चे का जन्म हुआ तो महिला जबर्दस्त मानसिक पीड़ा से गुजरेगी। क्योंकि पैदा होने के बाद बच्चे को कई बार दिल की सर्जरी करनी होगी और फिर भी उसकी जान खतरे से बाहर नहीं रहेगी। जाहिर है अदालत का फैसला सही भी है। अदालत ने अपना जो भी फैसला दिया, वह मौजूदा गर्भपात कानून के एक प्रावधान के ही मुताबिक है। यदि अदालत महिला को गर्भपात की इजाजत नहीं देती, तो बच्चे के साथ-साथ मां को भी काफी परेशानी झेलनी पड़ती। जस्टिस दीपक मिश्रा और जस्टिस एम. खनविलकर की खंडपीठ ने इस फैसले में एक महत्वपूर्ण बात और कही कि महिला का अपने शरीर पर विशुद्ध व पवित्र अधिकार है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी एक्ट में सिर्फ  भ्रूण नहीं, मां की जिंदगी के बारे में भी कहा गया है। अगर बच्चा पैदा होने पर कोमा में रहे या कुछ महसूस न करे तो मां की जिंदगी कैसी रहेगी। लिहाजा अस्पताल में तुरंत गर्भपात की प्रक्रिया शुरू की जाए। यह फैसला इसलिए अहम है, क्योंकि ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी कानून’ महिला की जान खतरे में होने के हालात में ही अदालत की इजाजत पर गर्भपात करने की इजाजत देता है। महिला ने अदालत में इस कानून के उस प्रावधान को चुनौती दी थी, जिसमें 20 हफ्ते से ऊपर की प्रेग्नेंसी टर्मिनेट करने पर मनाही है। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल की एक महिला ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका लगाकर गुहार की थी कि उसके गर्भ में पल रहा भ्रूण गंभीर तौर पर दिल की बीमारी से पीड़ित है। यदि यह बीमार बच्चा पैदा हुआ तो बच्चे के साथ-साथ उसकी जान भी खतरे में आ जाएगी। बहरहाल महिला की अर्जी पर संवेदनशीलता से गौर करते हुए अदालत ने इस संबंध में मेडिकल बोर्ड से तुरंत रिपोर्ट मांगी। मेडिकल बोर्ड ने अदालत को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कहा कि गर्भावस्था जारी रहने पर मां की जिंदगी को खतरा है। लिहाजा इस मामले को एक खास मामले के तौर पर लिया जाए। बोर्ड की राय के बाद अदालत ने महिला के हक में फैसला सुनाया। वैसे भी ‘मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971’ की धारा-5 कहती है- ‘यदि मां की जान को गंभीर खतरा हो, तो 20 हफ्ते के गर्भ के बाद भी गर्भपात की इजाजत दी जा सकती है। इस तरह के मामलों में इस कानून की धारा-3 अमल में नहीं आएगी।’ देश में गर्भवती महिलाओं की मौत की तीसरी सबसे बड़ी वजह असुरक्षित गर्भपात है। गर्भपात संबंधी सख्त कानूनों के चलते वे महिलाएं भी सुरक्षित गर्भपात का सहारा नहीं ले पातीं, जिन्हें इसकी बेहद जरूरत है। निचली अदालतों से भी उन्हें कोई राहत नहीं मिलती। साल 2008 में मुंबई हाई कोर्ट ने एक महिला के 24 हफ्ते के भ्रूण के गर्भपात की इजाजत नहीं दी थी। बाद में उसे गर्भपात हो गया। जाहिर है, तभी से गर्भपात कानून बहस का मुद्दा बना हुआ है। ज्यादातर विकसित देशों ने महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को स्वीकार करते हुए अपने यहां गर्भपात कानूनों में संशोधन किए हैं। अमेरिका में साल 1973 से ही महिलाओं को गर्भपात का अधिकार हासिल है। वहीं एक और अन्य देश आयरलैंड में जब भारतीय मूल की दंत चिकित्सक सविता हलप्पनवार की समय पर गर्भपात न होने की वजह से मौत हो गई तो वहां यह मामला बहुत गरमाया। जनता के दवाब में आखिरकार आयरलैंड की संसद ने गर्भपात कानून को बदला और विशेष परिस्थितियों में अपने यहां गर्भपात को मान्यता दी। पश्चिम के विकसित देशों की अपेक्षा मुस्लिम बाहुल्य ज्यादातर देशों में गर्भपात पर पूरी तरह से पाबंदी है। जबकि अन्य देशों में भी बेहद कड़ी शर्तों में ही इसकी इजाजत है। भारत की यदि बात करें तो मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 के मुताबिक मां को खतरा होने, शारीरिक, मानसिक चोट की स्थिति में 12 से 20 हफ्ते के गर्भ का दो डॉक्टरों की सलाह पर गर्भपात हो सकता है। यहीं नहीं यदि बच्चे को किसी तरह का शारीरिक या मानसिक जोखिम हो, तब भी गर्भपात का सहारा लिया जा सकता है। नाबालिग लड़की, विक्षिप्त लड़की अपने मां-बाप या संरक्षकों की इजाजत से गर्भपात करा सकती है। हालिया मामले को यदि देखें, तो गर्भ में पल रहा भ्रूण गंभीर बीमारी से पीड़ित था। यदि वह सुरक्षित ढंग से जन्म भी ले लेता तो उसका आगे चलकर बचना बेहद मुश्किल था। ऐसे में मां को और भी ज्यादा तकलीफ  पहुंचती। लिहाजा अदालत ने पीड़ित मां को राहत पहुंचाते हुए उसके हक में फैसला सुनाया। फिर मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी एक्ट की धारा-5 भी ये कहती है कि जान का खतरा हो तो 20 हफ्ते के बाद भी गर्भपात हो सकता है। अलबत्ता उसके लिए मेडिकल बोर्ड की इजाजत जरूरी है। 
देश में आए दिन ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जब 20 हफ्ते बाद यह मालूम चलता है कि भ्रूण में शारीरिक खराबी है। यदि समय पर गर्भपात नहीं कराया गया, तो मां की जान को खतरा हो सकता है। ऐसे में किसी औरत और उसके परिवार को गर्भपात का फैसला लेना सचमुच एक मुश्किल भरा काम होता है। लेकिन एक जिंदगी बचाने के लिए, इस तरह के फैसले जरूरी भी होते हैं। कोई औरत जब यह फैसला लेती है, तो उसकी राह में सबसे बड़ी रुकावट मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ  प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 की धारा 3-2-बी के तौर पर आती है। यह धारा 20 हफ्ते से ज्यादा पुराने गर्भ को खत्म करने पर पाबंदी लगाती है। कानून के यह प्रावधान, मां और भ्रूण की जान को खतरा होने के बाद भी 20 हफ्ते से ज्यादा पुराना गर्भ खत्म करने की इजाजत नहीं देते। कानून में पाबंदी की वजह से डॉक्टर भी गर्भपात करने से साफ  मना कर देते हैं। यही वजह है कि देश में कुछ स्त्री अधिकार संगठन लंबे समय से इस कानून की धारा 3-2-बी को रद्द करने की मांग कर रहे हैं। उनका कहना है कि गर्भपात, महिलाओं का अधिकार है। गर्भपात पर पाबंदी, संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 21 के तहत औरत को मिले मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। गर्भपात के लिए कोई सीमा तय करना अतार्किक, मनमाना, कठोर, भेदभावपूर्ण और जीवन एवं समानता के अधिकारों का उल्लंघन है। जब कई विकसित देशों ने महिलाओं के गर्भपात के अधिकार को स्वीकार करते हुए अपने यहां गर्भपात कानूनों में संशोधन कर दिए हैं, तो भारत क्यों इससे पीछे है? शीर्ष न्यायालय के पास ऐसी कई याचिकाएं लंबित हैं, जिनमें यह मांग की गई है कि गर्भपात संबंधी कानून में बदलाव किया जाए। शीर्ष न्यायालय की एक विशेष खंडपीठ, हाल-फिलहाल गर्भपात के कानूनी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता के व्यापक मुद्दे पर विचार कर रही है। उम्मीद है कि इस मामले में अदालत जब भी अपना आखिरी फैसला सुनाएगी, तो इन सभी पहलुओं पर जरूर गौर करेगी।






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