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कर्जमाफी के साथ ही जरूरी है फसल का दाम
कर्जमाफी के साथ ही जरूरी है फसल का दाम
पंकज चतुर्वेदी    13 Apr 2017       Email   

उत्तर प्रदेश की नई सरकार ने एक लाख तक के कृषि कर्ज माफ  किए तो लेागों ने इसे स्वागत योग्य कदम बता दिया और रिजर्व बैंक इससे असहमत दिखा। वहीं राज्य सरकार द्वारा अस्सी लाख टन से अधिक गेहूं खरीदने के केंद्र राज्यभर में शुरू करने, दस रुपए प्रति कुंतल ढुलाई का चुकाने का जो फैसला हुआ, उस पर किसी ने तारीफ  नहीं की। असल में किसान न तो कर्ज चाहता है, न ही उसकी माफी और न ही उनके छंटाक भर कर्ज माफी की आड़ में उद्योगपतियों की अरबों के कर्ज माफी का बहाना बनना चाहता है। इसी साल किसान की मेहनत खेत में जब सोना बनी तो देश के कई हिस्सों में असामयिक बरसात व ओले गिर गए, जबकि कई जगह छोटी सी लापरवाही के चलते कटी फसल के खलिहान में ही जल जाने की खबरें आ रही हैं। जब खेत में फसल सूखने को तैयार होती है तो किसान के सपने हरे हो जाते हैं। किसान के ही नहीं देश भी खुशहाली, भोजन पर आत्मनिर्भरता, महंगाई जैसे मसलों पर निश्चिंत हो जाता है। प्रयास यह होना चाहिए कि किसान और उसके नाम पर देश पर कर्ज भी समाप्त हो, साथ ही खेती-किसानी करने वाले हताश होकर अपना काम भी न छोड़ें।
इस देश में खेती हर समय अजीब विरोधाभास के बीच झूलती है, एक तरफ किसान फसल नष्ट होने पर मर रहा है तो दूसरी ओर अच्छी फसल होने पर वाजिब दाम न मिलने पर भी उसे मौत को गले लगाना पड़ रहा है। दोनों ही मसलों में मांग केवल मुआवजे, राहत की है। जबकि यह देश के हर गांव के हर किसान की शिकायत है कि गिरदावरी यानी नुकसान के जायजे का गणित ही गलत है। और यही कारण है कि किसान जब कहता है कि उसकी पूरी फसल चौपट हो गई तो सरकारी रिकार्ड में उसकी हानि 16 से 20 फीसदी दर्ज होती है और कुछ दिनों बाद उसे बीस रुपए से लेकर दौ सौ रुपए तक के चेक बतौर मुआवजे मिलते हैं। सरकार प्रति हैक्टेयर दस हजार मुआवजा देने के विज्ञापन छपवा रही है, जबकि यह तभी मिलता है, जब नुकसान सौ टका हो और गांव के पटवारी को ऐसा नुकसान दिखता नहीं है। यही नहीं मुआवजा मिलने की गति इतनी सुस्त होती है कि राशि आते-आते वह खुदकुशी के लिए मजबूर हो जाता है। दूसरी ओर फसल की वाजिब कीमत न मिलने पर कोई संरक्षण का उपाय है ही नहीं। असल में इसी व्यवस्था के तहत थोड़ा सा डिजिटल होकर किसान को बाढ़-सुखाड़ या आपदा के प्रकोप से मुक्त किया जा सकता है। न बीमा की किश्त भरनी है, न ही कर्ज के कागज। हर गांव का पटवारी इस सूचना से लैस होता है कि किस किसान ने इस बार कितने एकड़ में क्या फसल बोई थी। होना तो यह चाहिए कि जमीनी सर्वे के बनिस्पत किसान की खड़ी-अधखड़ी-बर्बाद फसल पर सरकार को कब्जा लेना चाहिए तथा उसके रिकार्ड में दर्ज बुवाई के आंकड़ों के मुताबिक तत्काल अधिकतम खरीदी मूल्य यानी एमएसपी के अनुसार पैसा किसान के खाते में डाल देना चाहिए। इसके बाद गांवों में मनरेगा में दर्ज मजदूरों की मदद से फसल कटाई करवा कर जो भी मिले, उसे सरकारी खजाने में डालना चाहिए। फसल अच्छी हुई तो सरकार की, और संकट में रही तो सरकार की। कुल मिला कर खेत किसान का, लेकिन वह काम कर रहा है समाज का या सरकार का। जब तक प्राकृतिक विपदा की हालत में किसान आश्वस्त नहीं होगा कि उसकी मेहनत, लागत का पूरा दाम उसे मिलेगा ही, खेती को फायदे का व्यवसाय बनाना संभव नहीं होगा। एक तरफ  जहां किसान प्राकृतिक आपदा में अपनी मेहनत व पूंजी गंवाता है तो यह भी डरावना सच है कि हमारे देश में हर साल कोई 75 हजार करोड़ के फल-सब्जी, माकूल भंडारण के अभाव में नष्ट हो जाते हैं। आज हमारे देश में कोई 6300 कोल्ड स्टोरेज हैं, जिनकी क्षमता 3011 लाख मीट्रिक टन की है।  जबकि हमारी जरूरत 6100 मीट्रिक टन क्षमता के कोल्ड स्टोरेज की है। मोटा अनुमान है कि इसके लिए लगभग 55 हजार करोड़ रुपए की जरूरत है। जबकि इससे एक करोड़ 20 लाख किसानों को अपने उत्पाद के ठीक दाम मिलने की गारंटी मिलेगी। वैसे जरूरत के मुताबिक कोल्ड स्टोरेज बनाने का व्यय सालाना हो रहे नुकसान से भी कम है। चाहे आलू हो या मिर्च या ऐसी ही फसल, इनकी खासियत है कि इन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है। टमाटर, अंगूर आदि का प्रसंस्करण कर वह र्प्याप्त लाभ देती हैं। सरकार मंडियों से कर वूसलने, वहां राजनीति करने में तो आगे रहती हैं, लेकिन वेयर हाउस या कोल्ड स्टोरेज स्थापित करने की उनकी जिम्मेदारियां पर चुप रहती है। यही तो उनके द्वारा किसान के शोषण का हथियार भी बनता है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है। पूरी तरह प्रकृति की कृपा पर निर्भर किसान के श्रम की सुरक्षा पर कभी गंभीरता से सोचा ही नहीं गया। फसल बीमा की कई योजनाएं बनीं, उनका प्रचार हुआ, पर हकीकत में किसान यथावत ठगा जाता रहा। कभी नकली दवा या खाद के फेर में तो कभी मौसम के हाथों। किसान जब केश क्राप यानी फल-सब्जी आदि की ओर जाता है तो आढ़तियों और बिचौलियों के हाथों उसे लुटना पड़ता है। 
देश के अलग-अलग हिस्सों में कभी टमाटर तो कभी अंगूर, कभी मूंगफली तो कभी गोभी किसानों को ऐसे ही हताश करती है। राजस्थान के सिरोही जिले में जब टमाटर मारा-मारा घूमता है, तभी वहां से कुछ किलोमीटर दूर गुजरात में लाल टमाटर के दाम ग्राहकों को लाल किए रहते हैं। राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश के कोई दर्जनभर जिलों में गन्ने की खड़ी फसल जलाने की घटनाएं हर दूसरे-तीसरे साल होती रहती हैं। जब गन्ने की पैदावार उम्दा होती है तो तब शुगर मिलें या तो गन्ना खरीद पर रोक लगा देती हैं या फिर दाम बहुत नीचा देती हैं, वह भी उधारी पर। ऐसे में गन्ना काटकर खरीदी केंद्र तक ढो कर ले जाना, फिर घूस देकर पर्चा बनवाना और उसके बाद भुगतान के लिए दो-तीन साल चक्कर लगाना, किसान को घाटे का सौदा दिखता है। अपने दिन-रात व जमा-पूंजी लगा कर देश का पेट भरने के लिए खटने वाले किसान की त्रासदी है कि न तो उसकी कोई आर्थिक सुरक्षा है और न ही  सामाजिक प्रतिष्ठा, तो भी वह अपने श्रम-कणों से मुल्क को सींचने पर तत्पर रहता है। किसान के साथ तो यह होता ही रहता है, कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़, कहीं खेत में हाथी, नील गाय या सुअर ही घुस गया, कभी बीज-खाद-दवा नकली, तो कभी फसल अच्छी आ गई तो मंडी में अंधाधुंध आवक के चलते माकूल दाम नहीं। प्राकृतिक आपदाओं पर किसी का बस नहीं है, लेकिन ऐसी आपदाएं तो किसान के लिए मौत से बदतर होती हैं। किसानी महंगी होती जा रही है, तिस पर जमकर बंटते कर्ज से उस पर दवाब बढ़ रहा है। ऐसे में आपदा के समय महज कुछ सौ रुपए की राहत राशि उसके लिए ‘जले पर नमक’ की मानिंद होती है। सरकार में बैठे लोग किसान को कर्ज बांटकर सोच रहे हैं कि इससे खेती-किसानी का दशा बदल जाएगी, जबकि किसान चाहता है कि उसे उसकी फसल की कीमत की गारंटी मिल जाए। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 31.8 प्रतिशत खेती-बाड़ी में तल्लीन कोई 64 फीसदी लोगों के पसीने से पैदा होता है। यह विडंबना ही है कि देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहलाने वाली खेती के विकास के नाम पर बुनियादी सामाजिक सुधारों को लगातार नजरअंदाज किया जाता रहा है। 
एक बात जान लेना जरूरी है कि किसान को न तो कर्ज चाहिए और न ही बगैर मेहनत के कोई छूट या सब्सिडी। इससे बेहतर है कि उसके उत्पाद को उसके गांव में ही विपणन करने की व्यवस्था और सुरक्षित भंडारण की स्थानीय व्यवस्था की जाए। किसान को सबसिडी से ज्यादा जरूरी है कि उसके खाद-बीज-दवा के असली होने की गारंटी हो तथा किसानी के सामानों को नकली बचने वाले को फंासी जैसी सख्त सजा का प्रावधान हो। अधिक उत्पादन के हालात में किसान को बिचौलियों से बचाकर सही दाम दिलवाने के लिए जरूरी है कि सरकारी एजेंसियां खुद गांव-गांव जाकर खरीदारी करें। सब्जी-फल-फूल जैसे उत्पाद की खरीद-बिक्री स्वयं सहायता समूह या सहकारी के माध्यम से करना कोई कठिन काम नहीं है। एक बात और, इस पूरे काम में हाने वाला व्यय, किसी नुकसान के आकलन की सरकारी प्रक्रिया, मुआवजा वितरण, उसके हिसाब-किताब में होने वाले व्यय से कम ही होगा। कुल मिलाकर किसान के उत्पाद के विपणन या कीमतों को बाजार नहीं, बल्कि सरकार तय करे।






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