राजनीति में कब क्या सामने आ जाए, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। अनिश्चितता के भंवर में फंसी क्षेत्रीय दलों की राजनीति विश्वास और अविश्वास के बीच झूलती हुई नजर आ रही है। सत्ता से बाहर हुए हर क्षेत्रीय दल को यकीनन यही लगता है कि पांच साल बाद हमारा नंबर आएगा। लेकिन देश में लोकनायक जयप्रकाश ने एक बार कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। इसके विपरीत हमारे देश के क्षेत्रीय दल पांच साल प्रतीक्षा करते हुए दिखाई देते हैं। वर्तमान राजनीतिक वातावरण को देखते हुए यह आसानी से कहा जा सकता है कि राजनीति के प्रति जिस प्रकार के अविश्वास के भाव का निर्माण हुआ है, उसमें कहीं न कहीं क्षेत्रीय दलों की राजनीति को ही कारण माना जा सकता है। दिल्ली की राजनीति में सुनामी जैसा दृश्य पैदा करने वाली आम आदमी पार्टी फिलहाल क्षेत्रीय दल की भूमिका में ही है, लेकिन मुख्यमंत्री केजरीवाल अपने आपको राष्ट्रीय राजनेता जैसा दिखावा करने का साहस कर रहे हैं।
कहते हैं कि जिसका धरातल ठोस होता है, उस पर मजबूती से भवन का निर्माण किया जा सकता है, लेकिन अगर किसी का महल बिना धरातल के बन गया हो, तब उसके टिके रहने पर संदेह पैदा होता है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की तुलना उपरोक्त कथानक से की जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं कही जाएगी। दिल्ली में किसी तूफान की तरह निर्मित हुए राजनीतिक दल आप की जमीन खिसकती चली जा रही है। इसके पीछे संगठन का अभाव ही माना जा रहा है। साथ ही केजरीवाल की कार्यशैली को भी जनता धीरे-धीरे समझने लगी है। सभी जानते हैं कि केजरीवाल ने अपनी पारी की शुरुआत एक चतुर राजनीतिक खिलाड़ी के तौर पर की थी, जिसमें केजरीवाल ने आरोप-प्रत्यारोप का खेल खेला। दिल्ली के छप्पर फाड़ जनादेश के बाद केजरीवाल को यह मुगालता हो गया कि वह पूरे देश में अपने पांव पसार सकते हैं, इतना ही नहीं उन्होंने इसके लिए जबरदस्त प्रयास भी किए। लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश में आम आदमी पार्टी ने नरेंद्र मोदी के सामने अपने आपको इस प्रकार प्रस्तुत किया कि वह भाजपा को हरा देंगे, लेकिन हुआ क्या यह सबके सामने है। इसी प्रकार गोवा और पंजाब में आप के बहुमत के दावे और परिणाम में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई दिया। इसके बाद दिल्ली के राजौरी गार्डन उपचुनाव में आप उम्मीदवार की जमानत जब्त होना केजरीवाल के लिए किसी तुषारापात से कम नहीं कहा जाएगा। इन सभी बातों से अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी की उलटी गिनती शुरू होती दिखाई देने लगी है। इससे केजरीवाल का चिंतित होना स्वाभाविक है। ऐसा लगता है कि अब केजरीवाल के राजनीतिक जीवन के सामने कई प्रकार के अवरोधक तनकर खड़े होते जा रहे हैं।
राजनीतिक आकांक्षा और महत्वाकांक्षा के वशीभूत होकर पारी खेलने वाले केजरीवाल अब सिमटने की ओर जाते दिख रहे हैं। उसके सामने जो स्थिति बनती दिखाई दे रही है, उसके लिए दोषी कोई और नहीं, बल्कि स्वयं केजरीवाल को ही माना जाए तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। क्योंकि केजरीवाल और उनके सहयोगी की भूमिका निभा रहे नेताओं ने जो बोया है, उसकी फसल ही सामने आ रही है, इसलिए यह फसल अब उन्हें ही काटनी होगी। दूसरों पर आरोप लगाने की बजाय स्वयं का आत्मचिंतन भी करना होगा। नहीं तो कहीं ऐसा नहीं हो जाए कि पूरी ताकत दूसरे राज्यों में पैर पसारने में ही समाप्त हो जाए और भविष्य में दिल्ली से बहुत दूर निकल जाएं। वर्तमान में आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल का मार्ग कुछ इसी प्रकार की कहानी को चरितार्थ करता हुआ दिखाई दे रहा है। उनका हर कदम दिल्ली से दूर होने की ओर संकेत कर रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस आप ने आम चुनाव में दूसरे दलों के कई प्रत्याशियों की जमानत जब्त कराई, उसी का उम्मीदवार राजौरी गार्डन के उपचुनाव में पार्टी की इज्जत बचा पाने में सफल नहीं हो सका।
आम आदमी पार्टी ने जब पहला चुनाव लड़ा, तब यही माना जा रहा था कि समाजसेवी अन्ना हजारे की मनाही के बाद भी केजरीवाल ने निर्वात में पत्थर उछाला है, पत्थर निशाने पर भी लगा और दिल्ली में सरकार बन गई, लेकिन हर बार पत्थर निशाने पर ही लगे, यह तय नहीं माना जा सकता। केजरीवाल के बाद में उछाले गए पत्थर न तो निशाने पर लगे और न ही उनका कोई पता चला। एक खास बात और, केजरीवाल ने दिल्ली की जनता को जो सपने दिखाए थे, उन पर काम करना तो दूर, दूसरों पर आरोप लगाना ही अपनी राजनीति का मुख्य आधार बना लिया। बस यही आधार ही आम आदमी पार्टी के डूबने का कारण बनता जा रहा है। वास्तव में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने जनता को वही सपने दिखाए, जो जनता हमेशा देखती रही है। राजनेताओं के सार्वजनिक जीवन में शुचिता, भ्रष्टाचार की समाप्ति, ईमानदारी और गरीब आदमी की सुनवाई को ही जनता ने प्रधान मानकर रखा था। जिसे आम आदमी पार्टी ने बखूबी भुनाया। लेकिन अभी तक कुछ भी दिखाई नहीं दिया। आम आदमी पार्टी लगातार गर्त में जाती हुई दिखाई दे रही है।
वर्तमान में अरविंद केजरीवाल की कार्यशैली के कारण आम आदमी पार्टी के समक्ष बहुत बड़ा भ्रम का वातावरण उपस्थित हुआ है। इसके लिए खुद आम आदमी पार्टी के नेता ही जिम्मेदार हैं। उनके नेताओं के कारनामे धीरे-धीरे जनता के सामने आते जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के नेताओं के व्यवहार को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय। आप के नेता आज कांटों पर चलना भूल गए हैं, वह केवल आम की लालसा लिए ही राजनीति करने की ओर प्रवृत्त होते दिख रहे हैं। आप की भूमिका को देखते हुए यही कहा जाएगा कि पहले अपना घर संभालने का प्रयास करना चाहिए, दूसरे के घर में जबरदस्ती घुसने का प्रयास किया तो अपना भी घर चला जाएगा। आम आदमी पार्टी ने यही किया है, दिल्ली तो संभाली नहीं जा रही और चल दिए उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा पर कब्जा करने।
अब आम आदमी पार्टी का उम्मीदवार राजौरी गार्डन का उपचुनाव हार गया। आम आदमी पार्टी की इस हार के सबक के तौर पर कई प्रकार के निहितार्थ निकाले जाने लगे हैं। स्थानीय निकाय के चुनाव के लिए चल रही तैयारियों के बीच अब आप फिर से मंथन करेगी, यह तय माना जा रहा है। नहीं तो भविष्य में आप का क्या होगा, इस पर कई अनुत्तरित सवाल उठने लगे हैं। जिनका जवाब फिलहाल तो किसी के पास नहीं है और भविष्य भी ऐसा कोई भी संकेत नहीं कर रहा, जिससे आम आदमी पार्टी को राहत मिल सके।