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पार्टी बचाने के लिए मशीन पर ठीकरा
पार्टी बचाने के लिए मशीन पर ठीकरा
डॉ. दिलीप अग्निहोत्री    17 Apr 2017       Email   

एकाधिकारवादी सुप्रीमो का चुनावी रिकार्ड जब पटरी से उतरने लगता है। तब अपनी पार्टी को एकजुट रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। चुनाव में जीत दिलाने की अपेक्षा इन्हीं से की जाती है। एक दो पराजय तो चल सकता है, लेकिन जब इसका सिलसिला बन जाए तो समर्थकों में निराशा अवश्य आ जाती है। बसपा और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो को आज इसी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। दोनों की व्यथा एक समान है। मायावती और अरविंद केजरीवाल को बड़े बहुमत से अपनी दम पर सरकार बनाने का अवसर मिला। लेकिन ये दोनों अपनी इस बुलंदी को कायम नहीं रख सके। ईवीएम वही रही, जिसने इन्हें अर्श पर पहंुचाया था, वहीं इन्हें क्रमशः फर्श की तरफ  लाने वाली साबित हुई। जाहिर है, अब इनके समर्थक भी संदेह करने लगे हंै। कुछ लोग खुलकर अविश्वास भी व्यक्त करने लगे हैं। कुछ अभी खामोशी का इंतजार कर रहे हैं। लेकिन जेहन में यही सवाल है कि क्या उनके सुप्रीमो का करिश्मा जवाब दे रहा है। ऐसे में क्या कहना गलता होगा कि मायावती और केजरीवाल अपनी पार्टी को मुकाबले में रखने के लिए बेचैन हैं। इसके मद्देनजर ही इन्होंने ईवीएम मशीन पर हमला बोला है। ये अपने समर्थकों बाताना चाहते हैं कि उनका करिश्मा तो कायम हैै, लेकिन उस ईवीएम ने ग्रहण लगा दिया। जबकि  पार्टी की दशा के लिए ईवीएम मशीन नहीं, ये सुप्रीमो खुद जिम्मेदार हैं। केजरीवाल ने अलग राजनीति के नाम से दिल्ली के लोगों का विश्वास जीता था। लेकिन उन्होंने अपने कार्यों से सबकी गलतफहमी दूर कर दी, वह दिल्ली में अपनी जिम्मेदारियों का उचित निर्वाह नहीं कर सके। सरकार व पार्टी में एकाधिकार बनाने के बाद वह अपनी महत्वाकांक्षा में भटकते रहे, कुछ दिनों में उनकी पार्टी में राजनीति के सभी परंपरागत दोष भर गए। पंजाब में जिन लोगों  को उन्होंने साथ लिया, अनैतिक राजनीति का नमूना था। ईवीएम क्या करती, सवाल तो केजरीवाल को अपने आप से करना चाहिए। वह दिल्ली में ऐसा क्या कर सके, जिससे प्रभावित होकर पंजाब के लोगों को उनका समर्थन करना चाहिए था। पंजाब में पूरी ताकत लगाने के बाद केजरीवाल हारे हैं। वह अपनी पार्टी को बताना चाहते हैं कि गलती उनकी नहीं, मशीन की थी। मायावती की स्थिति भी यही है। उत्तर प्रदेश में उन्हें पांच वर्ष पूर्ण बहुमत की सरकार चलाने और इसके बाद फौरन बाद मुख्य विपक्षी पार्टी की जिम्मेदारी निभाने का अवसर मिला। दोनों जिम्मेदारियों के बाद मायावती को मुस्लिम-दलित समीकरण बनाने की जरूरत क्यों पड़ी। सवाल यह है कि उनकी सरकार के किन कार्यों से प्रभावित होकर लोगों को उनको समर्थन देना चाहिए था। वैसे मायावती को पार्टी की शुरुआत से जुड़े मंत्री कमला कांत गौतम व पूर्व विशेष कार्याधिकारी गंगाराम अंबेडकर के कथन को देखना चाहिए। संयोग था कि जिस समय मायावती ईवीएम पर सुप्रीम कोर्ट जाने की बात कर रही थीं, उसी समय इन दोनों को बयान आया। उन्होंने कहा कि लगातार हार के उचित  कारणों को ढूंढने की कोशिश नहीं की गई, बहानेबाजी करने और कमियां को छिपाने का प्रयास किया गया। मायावती व केजरीवाल जानते हैं कि वह निजी कारणों से ईवीएम में गड़बड़ी का आरोप लगा रहे हंै। लेकिन इस स्तर राजनीति से बचना चाहिए, ये खुश हो सकते हैं कि आरोप केवल उत्तर प्रदेश व पंजाब पर लगाए गए हैं। लेकिन इस हरकत ने ईवीएम मशीन से हुए अब तक के सभी चुनावों पर अविश्वास शामिल है। विडंबना देखिए, इसमें मायावती और केजरीवाल को मिला भारी बहुमत भी शामिल है। मायावती जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं की समझ पर संदेह नहीं किया जा सकता। ये जानते हैं कि ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप सही नहीं हैं। इसी के माध्यम से हुए चुनाव ने इन दोनों को अपने राजनीतिक जीवन की बुलंदी पर पहुंचाया था। 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव परिणाम भी चौंकाने वाले थे। दो दशक बाद किसी एक पार्टी को यह बड़ा बहुमत मिला था। तब सपा के खिलाफ  मायावती की लहर थी। मायावती मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन तब यही ईवीएम बहुत अच्छी थी। इसमें छेड़छाड़ संभव नहीं थी। तब मायावती की समझ में नही आया था कि दूसरी पार्टी के वोट भी हाथी पर जा सकते हैं, ईवीएम ने केजरीवाल की भी राजनीति हैसियत बदल दी थी। अपवाद छोड़ दें तो दिल्ली विधान सभा पर उनकी पार्टी का ही वर्चस्व स्थापित हो गया था। उस समय भी ईवीएम मशीन बहुत अच्छी थी। एक अन्य विसंगति भी है। केजरीवाल और मायावती दोनों ही मशीन के खिलाफ  हैं। लेकिन मायावती मानती हंै कि धांधली केवल उत्तर प्रदेश में की गई। केजरीवाल की पार्टी पंजाब में लड़ रही थी। इसलिए उनका कहना है कि आम आदमी पार्टी के  बीस प्रतिशत वोट दूसरी जगह शिफ्ट हो गए। ऐसा लगता है कि केजरीवाल ने पंजाब की सभी ईवीएम मशीनों के भीतर घुसकर जांच भी कर ली है। उसके बाद रिपोर्ट भी बना ली। इसमें उनकी पार्टी को कितने वोट मिले थे, उनकी भी जांच हो गई, इनको किस तरह मशीन ने दूसरी पार्टी जोड़ दिया, इसको भी  केजरीवाल ने पकड़ लिया। मायावती और केजरीवाल के इस विलक्षण ज्ञान  से कुछ सवाल अवश्य उठते हैं। क्या जिन मशीनों के खुलने से इनको भारी बहुमत मिला था, वह सही थी। क्या समय चक्र को वापस लौटाकर उन चुनावों को भी निरस्त नहीं करना चाहिए। तब इन्हें मुख्यमंत्री की सूची से हटाना  होगा। दूसरा क्या भाजपा बिहार विधान सभा खुद हारना चाहती थी। इसलिए दूसरी पार्टी के वोट कमल निशान से नहीं जोड़े गए थे। तीसरा  मायावती मानती हैं कि गडबड़ी उत्तर प्रदेश में की गई। नरेंद्र मोदी और  अमित शाह यदि ऐसा कर सकते थे, तो पंजाब में अकाली भाजपा गठबंधन इतना पीछे कैसे रह गया। केजरीवाल का तर्क भी कम हास्यास्पद नहीं है। उनके अनुसार  बड़ी धांधली हुई, लेकिन वह आम आदमी पार्टी को हराने के लिए थे। मतलब जो आप को हराने के लिए मशीनें सेट कर सकता है, वह खुद चुनाव नहीं जीतना चाहता था। सवाल यहीं समाप्त नहीं होता। उत्तर प्रदेश व पंजाब की मशीनें इधर के वोट उधर भेज रही थीं तो गोवा, मणिपुर में यह कमाल क्यों नहीं दिखाई दिया। यहां तो मामूली प्रयास करने थे। केजरीवाल ,मायावती की बात को सही माने तो केवल कुछ मशीनें ही सेट करनी होतीं, भाजपा यहां बहुमत प्राप्त कर लेती, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, इसका मतलब है कि यहां वह कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बनाना चाहती थी। ऐसी दलीलें वही दे सकता है, जो आमजन को नासमझ मानता है। यदि धांधली संभव थी तो उसकी सर्वाधिक संभावना गोवा में थी। लेकिन ईवीएम पर ठीकरा फोड़ने वालों ने अपनी मर्जी से सब तर्क गढ़ लिए। इन्हें लगता है कि इनके समर्थक व आमजन की अपनी कोई समझ नहीं। ये जो तर्क देंगे, उन्हें आंख मंूदकर स्वीकार कर लिया जाएगा। सच्चाई यह है कि मायावती व केजरीवाल का राजनीतिक करिश्मा धूमिल पड़ रहा है। सत्ता में रह कर किए गए इनके कार्य आमजन को प्रभावित नहीं करते। समीकरण के आधार पर वोट प्रतिशत तो मिला, लेकिन इसके बल पर सत्ता में पहुचना असभंव होगा। अपनी कमजोरी छिपाने के लिए ईवीएम का सहारा लिया जा रहा है।






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