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तुर्की में नए सियासी दौर की शुरुआत
तुर्की में नए सियासी दौर की शुरुआत
गौरव कुमार    19 Apr 2017       Email   

करीब एक सदी पहले गणतंत्र बने तुर्की में राजनीति का नया दौर शुरू हो चुका है। यहां अबतक का सबसे बड़ा संवैधानिक परिवर्तन करते हुए राष्ट्रपति शासन प्रणाली लाए जाने के लिए जनमत संग्रह किया गया है। इस जनमत संग्रह में वर्तमान राष्ट्रपति रेचेप तेयप अर्दोआन स्पष्ट बहुमत से जीत गए हैं। अब 2029 तक उनका राष्ट्रपति बने रहना तय माना जा रहा है। ऐतिहासिक रूप से यह जनमत संग्रह तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही विश्व व्यवस्था में भी इस परिवर्तन का व्यापक असर पड़ना तय माना जा रहा है। बीते दिनों हुए जनमत संग्रह में तुर्की के करीब 51 प्रतिशत लोगों ने राष्ट्रपति शासन प्रणाली के पक्ष में वोट किया, वहीं करीब 49 प्रतिशत लोगों ने इसके विरोध में वोट किया है। इस जनमत संग्रह में जीत से उत्साहित राष्ट्रपति एर्दोआन के प्रसंशकों का मानना है कि राष्ट्रपति शासन प्रणाली देश के लिए बेहतर साबित होगी और इससे देश के आधुनिकीकरण में भी मदद मिलेगी। इसके विपरीत विरोधियों का मानना है कि इसके नतीजे निरंकुशता को बढ़ावा देंगे।
बहरहाल, यह समझना महत्वपूर्ण है कि तुर्की में अचानक इस तरह की नई प्रणाली की क्या सचमुच आवश्यकता थी? क्या पुरानी व्यवस्था ठीक ढंग से काम नहीं कर रही थी? ऐसे में क्या होगा, जब प्रधानमंत्री के पद को खत्म कर सारी शक्तियां राष्ट्रपति के हाथों में दे दी जाएंगी। साथ ही समस्त नौकरशाही भी एक सत्ता के नियंत्रण में कर दी जाएगी। इन प्रश्नों के उत्तर आसान नहीं है। तुर्की की वास्तविक स्थिति, उसके गणतांत्रिक इतिहास और वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ना आसान नहीं है। 
वैसे राष्ट्रपति एर्दोआन की मानें तो उनका कहना है कि करीब नौ महीने पूर्व हुए तख्तापलट के प्रयास के बाद तुर्की कई तरह की सुरक्षात्मक चुनौतियों से जूझ रहा था। इसके अलावा गठबंधन सरकार के नुकसान से बचने के लिए ऐसे कदम उठाने जरूरी थे। राष्ट्रपति ने यह भी दावा किया है कि यह नई प्रणाली फ्रांस व अमेरिका के काफी सामान होगी और इससे कुर्द विद्रोह, इस्लामिक कट्टरवाद और सीरिया में संघर्ष के बाद शरणार्थियों के प्रवेश से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने में भी मदद मिलेगी।  
वैसे तुर्की के 63 वर्षीय राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोआन के इन तर्कों से पूरी तरह सहमत होना आसान नहीं है। वर्तमान स्थिति के आधार पर तुर्की को देखें तो पश्चिमी देशों के सैन्य गुट नाटो में अमेरिका के बाद सबसे बड़ी सेना तुर्की की है। ऐसे में उसे सुरक्षा की चिंता करने की जरूरत नहीं थी। इसके अलावा तख्तापलट का अंदेशा कुछ हद तक सही कारण प्रतीत होते भी हैं, लेकिन अन्य कई तरह के तर्कों के आगे वे भी निराधार साबित होते हैं। जानकारों का मानना है कि राष्ट्रपति एर्दोआन चूंकि अबतक 13 बार चुनाव जीत चुके हैं, जनता की नब्ज से वे भलीभांति परिचित हैं और जनता के बीच उनकी पकड़ भी काफी अच्छी है, सो ऐसा मानने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि बार-बार के चुनावों से खुद को मुक्त कर एकछत्र राज का विचार भी उनमें घर कर गया हो। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ ऐसा ही राष्ट्रपति एर्दोआन के साथ भी संभव हो सकता है। इस तर्क के आधार पर नए संवैधानिक बदलाव को देखना गलत नहीं कहा जा सकता। हालांकि इसकी पुष्टि करना भी सरल नहीं है। दूसरी तरफ  तुर्की के प्रति अन्य देशों की सोच भी काफी अलग है। आदर्शात्मक तरीके से देखें तो उसे पश्चिमी देश मुस्लिम देशों के लिए लोकतंत्र का अनुकरणीय मॉडल मानते थे। ऐसे में लोकतंत्र को और मजबूत बनाने के बजाय इसे परिवर्तित कर कहीं न कहीं राजतंत्र और निरंकुशता को प्रोत्साहित करने का काम इस बदलाव से किया गया है। यह किसी भी विकसित या विकासशील देश के लिए सही कदम नहीं माना जा सकता।  
इसके अलावा तुर्की की वर्तमान स्थिति में इस जनमत संग्रह के प्रचार के नाम पर वहां के नेताओं के प्रयासों ने भी तुर्की की छवि को विश्व मंच पर खराब किया था। तुर्की के विदेश मंत्री सहित कई अन्य मंत्रियों ने जर्मनी, नीदरलैंड या फ्रांस जैसे देशों में जाकर वहां बसे तुर्कों के बीच प्रचार करने का प्रयास किया। इससे इन देशों के बीच इनके रिश्तों में भी काफी खटास पैदा हुई है। कई देशों ने तो उन्हें ऐसा करने से स्पष्ट मना भी कर दिया। इससे नाराज तुर्की नेताओं ने जर्मन और डच नेताओं को फासिस्ट, नाजी तौर-तरीकों वाले और आतंकवादियों के पोषक तक कह डाला। इस जनमत संग्रह को लेकर राष्ट्रपति एर्दोआन और उनके समर्थक इतने उत्साहित थे कि वे इसे किसी आम चुनाव प्रचार की तरह ले रहे थे।
इस वाकए के बाद इस जनमत संग्रह के नतीजे को देखें तो क्या दिखेगा? इस बदलाव का व्यापक असर हर क्षेत्र में देखने को मिलेगा। इतना ही नहीं, एक इस्लामिक लोकतांत्रिक देश से लोकतंत्र का इस तरह कुंद होना विश्व के सभी देशों के लिए चिंतनीय पहलू है, क्योंकि इस नई व्यवस्था में एक केंद्रित सत्ता का निर्माण किया जा रहा है, जो निरंकुश भी बन सकता है और वह संभव है अपनी निरंकुशता से संपूर्ण विश्व को उसी मध्यकालीन विश्व की ओर घसीटना शुरू कर दे। तुर्की में इसी तरह के नवीन संविधान का निर्माण किया जा रहा है। उसे भारत की राजनीतिक प्रणाली को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। तुर्की की अबतक की राजनीतिक प्रणाली के अनुसार तुर्की का राष्ट्रपति भारत के राष्ट्रपति की भांति सरकार का प्रमुख नहीं, बल्कि राष्ट्र का प्रमुख होता था। वर्तमान के संशोधन के द्वारा इसे अब सरकार का प्रमुख बना दिया गया है। जहां भारत में राष्ट्रपति का कार्यक्षेत्र नियमित राजनीति और संसदीय मामले या संसद और जनता के प्रति उतरदायी होना नहीं है और ये सभी कार्य प्रधानमंत्री के हैं, किंतु इसे अब राष्ट्रपति को सौंपकर उसे अधिक ताकतवर बना दिया गया है। वैसे देखा जाए तो एर्दोआन अगस्त 2014 से राष्ट्रपति बने हैं और तभी से उनकी कोशिश सत्ता को केंद्रित करने की रही है। उनके कार्यकाल में आज प्रधानमंत्री महज कठपुतली बनकर रह गया है। जिस तरह का गणतंत्र तुर्की था, वहां प्रधानमंत्री सरकार में प्रधान होता लेकिन हुआ इसके विपरीत। इसका एक दूसरा कारण भी था। चूंकि एर्दोआन केवल राष्ट्रपति ही नहीं हैं, बल्कि तुर्की संसद में बहुमत प्राप्त इस्लामी रूढ़िवादी पार्टी एकेपी के मुखिया भी हैं। हालांकि उनका मुखिया बने रहना वर्तमान के नियमों के प्रतिकूल है। भारत में ही देखें तो राष्ट्रपति पार्टी से अपना नाता तोड़ लेता है या तटस्थ रहता है, किंतु एर्दोआन के मामले में ऐसा नहीं है। उनकी ताकत दिन- ब-दिन बढ़ती गई है और उन्हें इस आधार पर कोई हटाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता।  
खुद को और भी शक्तिशाली बनाने के उद्देश्य से ही एर्दोआन ने 18 नए अनुच्छेदों वाला नया संविधान लागू कराया है। इस संविधान के लागू होने से न केवल प्रधानमंत्री का पद समाप्त हो जाएगा, बल्कि राष्ट्रपति ही सरकार का प्रमुख और प्रधानमंत्री की शक्तियों का उपयोग करेगा, साथ ही वह अपनी पार्टी का प्रमुख भी बना रह सकेगा। यानी वह अपनी मर्जी से चुनाव टिकट बांट सकेगा, अपना मंत्रिमंडल अपनी इच्छा से बना सकेगा और किसी को भी उपराष्ट्रपति बनाने के लिए स्वतंत्र होगा। इस नई व्यवस्था में मंत्रियों या मंत्रिमंडल को संसद के अनुमोदन की भी आवश्यकता नहीं रह जाएगी, जैसा कि संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली में होना अनिवार्य है। इसके अलावा संसद में कोई अविश्वास प्रस्ताव भी पेश नहीं किया जा सकता है। राष्ट्रपति को इतनी शक्ति से लैस कर दिया गया है कि संसद द्वारा पारित किसी भी विधेयक को अपने वीटो अधिकार से वह निरस्त कर सके। कई मामलों में वह खुद अध्यादेश लागू कर सकता है, जिसे बाद में संसद की मंजूरी की भी आवश्यकता नहीं होगी। इतना ही नहीं, राष्ट्रपति कभी भी संसद को किसी भी समय भंग करके नए चुनाव या आपातकाल की घोषणा भी कर सकेगा। देश के बजटीय प्रणाली और प्रक्रिया पर भी राष्ट्रपति का दबदबा कायम कर दिया गया है। राष्ट्रीय बजट बनाने का काम वित्त मंत्रालय की जगह राष्ट्रपति कार्यालय करेगा। 
राष्ट्रपति ही सशस्त्र सेनाओं का सर्वोच्च कमांडर भी होगा। न्यायपालिका को भी राष्ट्रपति की शक्ति के अंतर्गत डाल दिया गया है। कुल मिलाकर शक्ति का केंद्रीकरण करने का इस नई व्यवस्था से अच्छा उदाहरण नहीं दिखेगा।
हालांकि इस नई व्यवस्था में एक बात यह अच्छी हुई है कि नियमित चुनाव की प्रक्रिया को बरकरार रखा गया है। आगे राष्ट्रपति और संसद का कार्यकाल पांच वर्ष का होगा, जिसके लिए मतदान एक साथ ही होगा। यह अच्छी बात तो है, किंतु तकनीकी रूप से देखें तो इस बात की संभावना बढ़ जाएगी कि राष्ट्रपति की पार्टी को ही संसद में सबसे अधिक सीटें भी मिलें। वैसे अब सीटों की संख्या भी वर्तमान के 500 से बढ़ा कर 600 कर दी गई है, किंतु इसके बढ़ने का कोई महत्व नहीं जब उनके अधिकारों को ही संकुचित कर दिया गया हो। इस नई व्यवस्था से खुश और उत्साहित एर्दोआन के समर्थक यह मान रहे हैं कि अमेरिका और फ्रांस की भांति तुर्की में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू की गई है, इसलिए इसकी आलोचना नहीं हो सकती, किंतु उनका यह तर्क स्वीकार्य नहीं है क्योंकि अगर अमेरिकी राष्ट्रपति शासन प्रणाली को देखें तो वहां राष्ट्रपति न तो अपनी पार्टी का मुखिया होता है और न ही तुर्की की नई व्यवस्था वाले राष्ट्रपति जितना ताकतवर कि अपनी मनमर्जी ससंद में चला सके। इसी प्रकार फ्रांस का राष्ट्रपति भी किसी और को प्रधानमंत्री मनोनीत करता है, न कि उसकी शक्तियों का खुद उपयोग करता है। हां, वैसे फ्रांस के राष्ट्रपति के पास प्रधानमंत्री की अपेक्षा अधिक शक्ति और सत्ता अवश्य है, पर संसद राष्ट्रपति की इच्छा के विरुद्ध अविश्वास द्वारा प्रधानमंत्री को अपदस्थ भी कर सकती है जो कि वहां कई बार हो चुका है। किंतु तुर्की की नई व्यवस्था में ऐसा नहीं है।






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