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कश्मीर में पत्थरबाज कैसे आएंगे बाज
कश्मीर में पत्थरबाज कैसे आएंगे बाज
प्रभुनाथ शुक्ल    19 Apr 2017       Email   

कभी-कभी अधिक लचीलापन और सहृदयता खुद के लिए समस्या बन जाती है। हमारी इसी नीति का नतीजा है कश्मीर समस्या। कश्मीर भारत के लिए राजनीतिक के साथ-साथ न चाहते हुए भी वैश्विक कूटनीति का मसला बन गया है। भारत से तीन बार पराजित होने के बाद भी पाकिस्तान की नींद नहीं टूट रही है, जिसका नतीजा है कि वह आतंकवाद व अलगाववाद की फसलें तैयार करके आंतरिक रूप से भारत को कमजोर करना चाहता है। भारत-पाक  विभाजन हुए सात दशक का लंबा वक्त गुजर चुका है, लेकिन कश्मीर समस्या जस की तस बनी हुई है। इसकी वहज से वहां आम आदमी सबसे अधिक परेशान है, जबकि पाकिस्तान खुले आम आतंकवाद भड़का रहा है। वहीं हमारी सेना को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सुरक्षाबलों का मनोबल घटाने के लिए पाकिस्तान और आतंकी संगठनों की तरफ  से रोज-रोज नई साजिश रची जाती है। कश्मीर को जीत लेने का पाकिस्तान का निहायत काल्पनिक खयाल और दिवास्वप्न हालांकि कभी साकार नहीं हो सकता, क्योंकि वहां का आम आदमी भारत के साथ है, जबकि कुछ मुट्ठी भर बहके युवा आतंकी संगठनों के हाथ का लट्टू बने हुए हैं, क्योंकि उन्हें इसके बदले में पैसे दिए जाते हैं। दूसरी तरफ  इस समस्या के लिए लोकतांत्रित तरीके से चुनी जानेवाली वहां की स्थानीय सरकारों का अंतरविरोध भी कम जिम्मेदार नहीं है, फिर वह चाहे बाप-बेटे की पूर्ववर्ती सरकार रही हो या फिर बाप-बेटी की वर्तमान सरकार। सभी ने राष्ट्रीय नीतियों की वकालत के बजाय दबी जुबान से या कहिए कि परोक्ष रूप से अलगाववादियों का साथ दिया है। दूसरी वजह राजनीतिक विचारधारा के असमानता वाले दलों का बेमेल गठजोड़ भी है। वह चाहे कांग्रेस-नेशनल कांफ्रेंस का एलायंस रहा हो या फिर भाजपा-पीडीपी का मौजूदा गठबंधन। जबकि समय का तकाजा है कि सरकार को पत्थरबाजों पर सख्त रवैया अख्तियार करते हुए दो टूक नीति अपनानी होगी। इंडिया गोबैक का नारा लगाने वालों को यह संदेश जाना ही चाहिए कि पत्थरबाजों और अलगाववादी आतंकियों भारत छोड़ो और पाकिस्तान जाओ।
चूंकि पाकिस्तान और आतंकी संगठन भारत से सीधा मुकाबला नहीं कर सकते, लिहाजा कश्मीरी युवाओं को पैसे देकर पत्थरबाजों की फौज खड़ी की गई है। सेना के जवानों के साथ बदसलूकी की सीमाएं लांघी जा रही हैं। 
लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बाधा डाली जा रही है। लोग भय की वजह से अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं कर पा रहे हैं। श्रीनगर के बड़गाम लोकसभा के उपचुनाव में किस तरह हिंसा हुई, जिसमें हमारे कई जवान शहीद हो गए। काफी संख्या में मतदान में लगे लोग और सेना व सुरक्षा बल के जवान जख्मी हो गए। अलगाववादियों ने पोलिंग बूथों को आग के हवाले कर दिया। पत्थरबाजों की टोली ने हमारे सीआरपीएफ  के जवानों के साथ जिस तरह का सलूक किया, उस वायरल वीडियो को देखकर पूरे हिंदुस्तान का खून खौल उठा। वहां एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है। इसके बावजूद जिस तरह युवा कानून-व्यवस्था की धज्जियां उड़ा रहे हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। लालचौक में छात्र सुरक्षाबलों पर पत्थरबाजी कर रहे हैं। आतंकी संगठन भोलेभाले युवाओं और किशोरों को आगे करके अपनी रणनीति को अंजाम देने में लगे हंै, फिलहाल यही सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि इस तरह से अलगाववाद और आतंक की एक नई पौध तैयार होगी। हालांकि इनकी संख्या बेहद कम है। आम कश्मीरियों को सिर्फ  बंदूक के बल पर दबाने की साजिश रची जा रही है। लोग सुरक्षा बलों को चांटे मार रहे हैं और मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती सेना को संयम बरतने की सलाह दे रही हैं। पूर्व सीएम फारुक अब्दुल्ला तो खैर पत्थरबाजों को राष्ट्रभक्त तक बता चुके हैं। जरा सोचिए कि सियासी प्रतिस्पर्द्धा में वहां की सरकार और प्रतिपक्ष की क्या सोच है। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि इस तरह कश्मीर समस्या का हल निकलेगा।
पत्थरबाजों को राष्ट्रभक्त बताने वाले फारुक जैसे अनुभवी नेता को क्या इस बात का एहसास भी है कि महज सात फीसदी वोटिंग की बदौलत उन्हें राज्य का प्रतिनिधि कहलाने का कितना हक है। बेहद जटिल परिस्थिति और चरम उपद्रव के बीच श्रीनगर उपचुनाव में आठ फीसदी से भी कम वोड पड़े। हिंसा के बाद पुनर्मतदान में स्थिति इस हद तक चिंताजनक रही कि केवल दो फीसदी वोटिंग हुई। आखिर कश्मीर किस दिशा की तरफ  बढ़ रहा है। दो से आठ फीसदी वोटिंग के बाद फारुक अब्दुल्ला सासंद चुन लिए गए, जबकि 70 फीसदी पोलिंग बूथ खाली पड़े रहे। गौरतलब है कि 2014 में यहां 26 फीसदी वोटिंग के बाद फारुक अब्दुला की पराजय 42 हजार वोटों से हुई थी। लेकिन कैसी विडंबना है कि इस बार महज सात फीसदी पोल के बाद  उपचुनाव में वे जीत गए। श्रीनगर संसदीय इलाके में वोटरों की कुल संख्या साढ़े 12 लाख से अधिक है, जबकि इस बार वोटिंग करने वालों की तादाद सिर्फ  90 हजार थी। यहां 1999 में सबसे कम तकरीबन 12 फीसदी वोटिंग हुई थी। 
कश्मीर में अलगाववादियों को किस तरह की आजादी चाहिए, यह पता नहीं। लेकिन उन्होंने कभी सिंध और बलूचिस्तान की अंतहीन त्रासदी को करीब से देखने की कोशिश नहीं की। क्या ये पत्थरबाज सिंध और बलूचिस्तान में जाकर यह सब करने की कल्पना भी कर सकते हैं। असलियत यह है कि अगर बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करने की ताकत भारत रखता है तो कश्मीर को भी बहुत निर्णायक कदम उठाकर दुरुस्त किया ही जा सकता है, लेकिन सवाल है कि तब ऐसे बेगुनाह मारे जाएंगे, जिनका वास्तव में कोई दोष नहीं है। भारत के इसी संयम और धैर्य या कोई कहना चाहे तो इसे कमजोरी कह ले, इसका ही अलगाववादी-आतंकी संगठन और पाकिस्तान बेजा लाभ उठाना चाहते हैं। 
कश्मीर में चुनी हुई सरकार है, लेकिन वह क्या कर रही है। पत्थरबाजों को इतनी छूट क्यों दी गई है। सेना के साथ इस तरह की बदसलूकी क्यों की जा रही है। जब हमारी सेना आतंकियों से मुठभेड़ लेती है तो पत्थरबाज सामने आ जाते हैं। कश्मीर में चरमपंथ किस तरह हावी है पिछले दिनों सोशलमीडिया में वायरल हुए उस वीडियो से ही अंदाजा लगाया जा सकता है जिसमें चुनावी ड्यूटी पर गए जवानों पर थप्पड़ मारे जा रहे हैं। सेना की जीप पर पत्थरबाज को बांधकर घुमाना मानवाधिकार का उल्लंघन होता है, लेकिन देश रक्षा में 
समर्पित जवानों के मुंह पर चांटा मारना क्या देशभक्ति है?
सरकार को कश्मीर पर अब तो ठोस नीति बनानी ही होगी। आतंकवाद पर हमें अमेरिकी नीति अपनानी होगी। अफगानिस्तान में आईएसआई और उसके पोषित आतंकियों के सफाए के लिए जिस तरह अमेरिका ने कदम उठाया, वैसी ही नीति का शायद हमें भी अनुसरण करना होगा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को विश्वास में लेना हमारी कूटनीतिक रणनीति हो सकती है, लेकिन कश्मीर और पाकिस्तान का इलाज हमें अपने तरीके से ही करना होगा। जिस तरह चीन को तिब्बत पर पीड़ा होती है, उसी तरह कश्मीर हमारे लिए है, चीन को भी यह समझाना होगा। 
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार है)






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