अभी तो बरसात का पहला महीना आषाढ़ ही चल रहा है और पूर्वोत्तर राज्यों से लेकर कई स्थानों पर नदियां उफनकर खेत-बस्ती में घुस गई हैं। अभी तो मानसून के 60 दिन बकाया हैं और मौसम विभाग की उस भविष्यवााणी के सच होने की संभावना दिख रही है कि इस साल सदी का सबसे बेहतरीन मानसून होगा व बरसात औसत से ज्यादा होगी। तात्कालिक तौर पर तो यह सूचना सुखद लगती है, लेकिन जल-प्लावन के चलते तबाही के बढ़ते दायरे के आंकड़े अलग तरह का खौफ पैदा करते हैं। पिछले कुछ सालों के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि बारिश की मात्रा भले ही कम हुई है, लेकिन बाढ़ से तबाह हुए इलाकों में कई गुना बढ़ोतरी हुई है। कुछ दशकों पहले जिन इलाकों को बाढ़ से मुक्त क्षेत्र माना जाता था, अब वहां की नदियां भी उफनाने लगी हैं और मौसम बीतते ही उन इलाकों में एक बार फिर पानी का संकट छा जाता है। असल में बाढ़ महज एक प्राकृतिक आपदा ही नहीं है, बल्कि यह देश के गंभीर पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक संकट का कारक बन गया है। हमारे पास बाढ़ से निबटने को महज राहत कार्य या यदा-कदा कुछ बांध या जलाशय निर्माण का विकल्प है, जबकि बाढ़ के विकराल होने के पीछे नदियों का उथला होना, जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गरमी, रेत की खुदाई व शहरी प्लास्टिक व खुदाई मलबे का नदी में बढ़ना, जमीन का कटाव जैसे कई कारण दिनोंदिन गंभीर होते जा रहे हैं। जिन हजारों करोड़ की सड़क, खेत या मकान बनाने में सरकार या समाज को दशकों लग जाते हैं, उसे बाढ़ का पानी पलक झपकते ही उजाड़ देता है। हम नए कार्यों के लिए बजट की जुगत लगाते हैं और जीवनदायी जल उसका काल बन जाता है।
सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन् 1951 में भारत की बाढ़ग्रस्त भूमि की माप एक करोड़ हेक्टेयर थी। 1960 में यह बढ़कर ढाई करोड़ हेक्टेयर हो गई। 1978 में बाढ़ से तबाह जमीन 3.4 करोड़ हेक्टेयर थी, आज देश के कुल 329 मिलियन यानी दस लाख हेक्टेयर में से चार करोड़ हेक्टेयर इलाका नियमित रूप से बाढ़ की चपेट में हर साल बर्बाद होता है। वर्ष 1995-2005 के दशक के दौरान बाढ़ से हुए नुकसान का सरकारी अनुमान 1805 करोड़ था, जो अगल दशक यानी 2005-2015 में 4745 करोड़ हो गया है। हाल ही में केंद्रीय जल आयोग द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर साल लगभग 72 हजार वर्ग किलोमीटर जमीन पर बाढ़ का प्रकोप होता है। इसमें से 37 हजार हेक्टेयर से ज्यादा जमीन खेती की होती है और औसतन 1,118 करोड़ की खड़ी फसल इससे नष्ट होती है। सवा लाख से ज्यादा मकान हर साल बाढ़ में ध्वस्त होते हैं व 96 हजार मवशी इसमें मारे जाते हैं। यह आंकड़ा ही बानगी है कि बाढ़ किस निर्ममता से हमारी अर्थव्यवस्था को चट कर रही है। बिहार राज्य का 73 प्रतिशत हिस्सा आधे साल बाढ़ और शेष दिन सुखाड़ का दंश झेलता है और यही वहां के पिछड़ेपन, पलायन और परेशानियों का कारण है। यह विडंबना है कि राज्य का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा नदियों के रौद्र रूप से पस्त रहता है। असम में इन दिनों 18 जिलों के कोई साढ़े सात लाख लोग बाढ़ के चलते घर-गांव से पलायन कर गए है और ऐसा हर साल होता है। यहां अनुमान है कि सालाना कोई 200 करोड़ का नुकसान होता है, जिसमें मकान, सड़क, मवेशी, खेत, पुल, स्कूल, बिजली, संचार आदि शामिल हैं। राज्य में इतनी मूलभूत सुविधाएं खड़ा करने में दस साल लगते हैं, जबकि हर साल औसतन इतना नुकसान हो ही जाता है। यानी असम हर साल विकास की राह पर 19 साल पिछड़ता जाता है। केंद्र हो या राज्य, सरकारों का ध्यान बाढ़ के बाद राहत कार्यों व मुआवजे पर रहता है, यह दुखद ही है कि आजादी के 67 साल बाद भी हम वहां बाढ़ नियंत्रण की कोई मुकम्मल योजना नहीं दे पाए हैं। यदि इस अवधि में राज्य में बाढ़ से हुए नुकसान व बांटी गई राहत राशि को जोड़े तो पाएंगे कि इतने धन में एक नया सुरक्षित असम खड़ा किया जा सकता था।
देश में सबसे ज्यादा सांसद व प्रधानमंत्री देने वाले राज्य उत्तर प्रदेश की उर्वरा धरती, कर्मठ लोग, अयस्क व अन्य संसाधन उपलब्ध होने के बावजूद विकास की सही तस्वीर न उभर पाने का सबसे बड़ा कारण हर साल आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान हैं। बीते एक दशक के दौरान राज्य में बाढ़ के कारण 45 हजार करोड़ रुपए कीमत की तो महज खड़ी फसल नष्ट हुई है। सड़क, सार्वजनिक संपत्ति, इंसान, मवेशी आदि के नुकसान अलग हैं। राज्य सरकार की रपट को भरोसे लायक मानें तो सन 2013 में राज्य में नदियों के उफनाने के कारण 3259.53 करोड़ का नुकसान हुआ था, जोकि आजादी के बाद का सबसे बड़ा नुकसान था। अब तो देश के शहरी क्षेत्र भी बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं, इसके कारण भौतिक नुकसान के अलावा मानव संसाधन का जाया होना तो असीमित है। सनद रहे कि देश के 800 से ज्यादा शहर नदी किनारे बसे हैं, वहां तो जलभराव का संकट है ही, कई ऐसे कस्बे जो अनियोजित विकास की पैदाइश हैं, शहरी नालों के कारण बाढ़ग्रस्त हो रहे हैं।
सन् 1953 से लेकर 2010 तक हम बाढ़ के चलते 8,12,500 करोड़ फूंक चुके हैं, जबकि बाढ़ उन्मूलन के नाम पर व्यय राशि 1,26,000 करोड़ रुपए है। यह धन राशि मनरेगा के एक साल के बजट का कोई चार गुना है। आमतौर पर यह धनराशि नदी प्रबंधन, बाढ़ चेतावनी केंद्र बनाने और बैराज बनाने पर खर्च की गई, लेकिन यह सभी उपाय बेअसर ही रहे हैं। आने वाले पांच साल के दौरान बाढ़ उन्मूलन पर होने वाले खर्च का अनुमान 57 हजार करोड़ आंका गया है। सनद रहे कि हम अभी तक एक सदी पुराने ढर्रे पर बाढ़ को देख रहे हैं, यानी कुछ बांध या तटबंध बनाना, कुछ राहत सामग्री बांट देना, कुछ ऐसे कार्यालय बना देना, जो बाढ़ की संभावना की सूचना लोगों को दे सकें। बारिश के बदलते मिजाज, भूउपयोग के तरीकों में परिवर्तन ने बाढ़ के संकट को जिस तरह बदला है, उसको देखते हुए तकनीक व योजना में आमूल-चूल परिवर्तन आवश्यक है। वैसे शहरीकरण, वन विनाश और खनन तीन ऐसे प्रमुख कारण हैं, जो बाढ़ विभीषिका में उत्प्रेरक का कार्य कर रहे हैं। जब प्राकृतिक हरियाली उजाड़कर कंक्रीट जंगल सजाया जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता तो कम होती ही है, साथ ही सतही जल की बहाव क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है। फिर शहरीकरण के कूड़े ने समस्या को बढ़ाया है। यह कूड़ा नालों से होते हुए नदियों में पहुंचता है। फलस्वरूप नदी की जलग्रहण क्षमता कम होती है।
मौजूदा हालात में बाढ़ महज एक प्राकृतिक प्रकोप नहीं, बल्कि मानवजन्य साधनों का त्रासदी है। बाढ़ एक तरफ विकास की राह में रोड़ा है तो दूसरी तरफ देश के जल संसाधनों के लिए भी नुकसानदेह। अतएव बाढ़ के बढ़ते सुरसा-मुख पर अंकुश लगाने के लिए शीघ्र कुछ करना होगा। कुछ लोग नदियों को जोड़ने में इसका निराकरण खोज रहे हैं। हकीकत में नदियों के प्राकृतिक बहाव, तरीकों, विभिन्न नदियों के उंचाई-स्तर में अंतर जैसे विषयों का हमारे यहां कभी निष्पक्ष अध्ययन ही नहीं किया गया और इसी का फायदा उठाकर कतिपय ठेकेदार, सीमेंट के कारोबारी और जमीन-लोलुप लोग इस तरह की सलाह देते हैं। पानी को स्थानीय स्तर पर रोकना, नदियों को उथला होने से बचाना, बड़े बांध पर पाबंदी, नदियों के करीबी पहाड़ों पर खुदाई पर रोक और नदियों के प्राकृतिक मार्ग से छेड़छाड़ को रोकना कुछ ऐसे सामान्य प्रयोग हैं, जोकि बाढ़ सरीखी भीषण विभीषिका का मुंहतोड़ जवाब हो सकते हैं।