अब इसे क्या कहा जाए कि एक सौ तीस करोड़ की आबादी वाले देश के केवल एक दर्जन रसूखदारों ने एक मोटे अनुमान के अनुसार, करीब दो लाख करोड़ रुपए से अधिक के बैंकों के कर्जों को डूबत खाते की श्रेणी में ला दिया है। यह तो तब है, जब यह रसूखदार सरकार के सामने हैं। भारतीय रिजर्व बैंक और सरकार के लाख प्रयासों के बावजूद देश में बैंकों के एनपीए के स्तर में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पिछले दिनों ही आरबीआई की आंतरिक सलाहकार समिति ने सबसे अधिक नॉन परफॉर्मिंग वाले पांच सौ खातों की पहचान की है। इनमें से भी 12 खाते ऐसे सामने आए हैं, जिनमें कुल एनपीए का एक चौथाई हिस्सा फंसा हुआ है। मजे की बात यह है कि आरबीआई द्वारा एनपीए खातों के खिलाफ सख्ती के बाद यह सामने आया है। बैंकों में पांच हजार करोड़ रुपए से अधिक के एनपीए खातों को चिन्हित करने पर यह आंकड़ा सामने आया है। इसका मतलब साफ है कि केवल एक दर्जन रसूखदारों के चलते सारी बैंकिंग व्यवस्था एनपीए की दलदल में फंस गई। यह वास्तव में गंभीर और चिंतनीय है। यह सब तब है, जब एनपीए के मामलों में सरकार गंभीर होती जा रही है। रिजर्व बैंक द्वारा जोखिम वाले कर्जों यानी कि डूबत खाते की श्रेणी में दर्शाए जाने वाले कर्जों की वसूली के लिए खास प्रयास करने पर जोर दिया जाता रहा है। इसके बावजूद एनपीए का स्तर करीब आठ लाख करोड़ रुपए से अधिक तक पहुंच गया है। इनमें भी दो तिहाई यानी कि करीब 6 लाख करोड़ रुपए तो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का ही फंसा हुआ है। आज देश के बैंकों का लगातार बढ़ता एनपीए गंभीर चिंता का विषय बन गया है। खास बात यह है कि यह एनपीए का स्तर किसी गरीब किसान या छोटे व्यापारी के ऋण नहीं चुकाने से नहीं बढ़ा है, बल्कि यह वह ऋण है, जो एक ही व्यक्ति को लाखों या करोड़ों में दिया जाता है। तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि एक मोटे अनुमान के अनुसार बैंकों की जमाओं में लगभग 50 फीसदी की हिस्सेदारी तो आम शहरी की होती है। यदि सरकारी, गैरसरकारी और एनजीओ आदि की डिपॉजिट का भी आकलन किया जाए तो यह आंकड़ा 80 फीसदी से भी अधिक बैठता है। ऐसे में निष्कर्ष यह निकलता है कि 80 फीसदी लोगों की डिपॉजिट का सबसे अधिक फायदा सबसे ज्यादा नॉन परफॉर्मिंग कर रहे 500 बैंक खाताधारकों ने बड़ी होशियारी से उठाया है और जब किश्त जमा कराने का मौका आ रहा है, तब किसी न किसी बहाने से पीछे हटते जा रहे हैं। यह कोई आज का एनपीए नहीं हैं, ऐसे में डिफाल्टरों द्वारा नोटबंदी का रोना रोना गले नहीं उतरता है। वहीं बैक एनपीए के स्तर बढ़ने का रोना रोते हुए खानापूर्ति करने में लगे हैं।
जहां तक किसानों या गरीबों या आम जरूरतमंद लोगों को दिए जाने वाले ऋणों की राशि तो कुछ लाख करोड़ रुपए तक ही सीमित होती है। जहां तक उनकी वसूली का प्रश्न है, इस वर्ग के अधिकांश लोगों द्वारा समय पर ऋण चुका भी दिया जाता है। हालांकि समय-समय पर सरकार द्वारा राजनीतिक फायदे के लिए लाई जाने वाली ऋण माफी या छूट योजनाएं समय पर ऋण चुकाने वाले लोगों को निरुत्साहित करने का कारण बनती है। इन दिनों देश के कई हिस्सों में किसानों के ऋण माफी को लेकर आंदोलनों का दौर जारी है। विचारणीय यह है कि समय पर ऋण चुकाने वाले ऋणियों का दोष क्या है? ऋण माफी के माध्यम से उन्हें निरुत्साहित ही किया जाता है और वे अपने आपको ठगा महसूस करते हैं। हालांकि यहां यह विषयांतर होगा। दो एक साल पुराने आंकड़ों के आधर पर ही समीक्षा की जाए तो उस समय बैंकों की जमाओं को लेकर जारी आंकड़ों के अनुसार देश के अधिसूचित बैंकों में 81310 अरब रुपए जमा थे। यह जमाएं बचत खातों व फिक्स डिपॉजिट के रूप में जमा है। इसमें आम आदमी की भागीदारी यही कोई 49.8 फीसदी थी, वहीं इस राशि में गैरसरकारी संगठनों को भी शामिल कर दिया जाए तो यह आंकड़ा 60 प्रतिशत के आसपास था। बैंकों में जमा कुुल डिपॉजिट में 14 प्रतिशत राशि सरकार या सरकार द्वारा संचालित उपक्रमों की होती है। बची-खुची राशि में 6 प्रतिशत जमाओं को योगदान प्रवासी भारतीयों का होता है। इस तरह से 80 प्रतिशत राशि सीधे-सीधे सरकार या आम आदमी की होने के बावजूद बैंकों से वित्तीय समावेशन का लाभ चुने हुए लोग ही ले पाते हैं। किसानों को वितरित ऋण को तो आरबीआई सौ फीसदी जोखिम की श्रेणी में रखकर एनपीए का निर्धारण करती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की सालाना जमाओं से अधिक पैसा रसूखदारों में फंसा होने से बैंकों की स्थिति पर प्रभाव पड़ना स्वभाविक है। यह भी सही है कि बड़े ऋणों का निर्णय भी शीर्ष स्तर पर होता है, ऐसे में एनपीए की बढ़ोतरी के लिए निचले स्तर को दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके लिए बैंकों के शीर्ष प्रबंधन को जिम्मेदारी भी लेनी होगी और अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए ऋणों की वसूली के लिए सख्त कदम उठाने के प्रयास भी करने होंगे। आखिर आम आदमी के पैसे को डूबत खातें में जाने से बचाने की किसी की तो जिम्मेदारी तय करनी ही होगी।
ऐसा नहीं है कि एनपीए की समस्या से रिजर्व बैंक या सरकार गंभीर नहीं है। यह भी सही है कि यह पैसा कुछ सौ-हजार ऋणियों में ही फंसा हुआ है। रिजर्व बैंक व सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने एनपीए के स्तर को कम करने के प्रयास भी किए हैं, परिणाम आने भी लगे हैं, पर चिंता इस बात की है कि इस सबके बावजूद एनपीए का स्तर लगातार बढ़ रहा है और वह भी हजारों करोड़ में। रिजर्व बैंक के उपायों में बड़े ऋणों की सूचनाओं को एकत्रित करने के लिए केन्द्रीय डिपॉजटरी बोर्ड का गठन, संयुक्त ऋण दाता फोरम बनाने, पांच करोड़ से अधिक के ऋणों के आंकड़े संग्रहित कर उनपर निगरानी व कार्यवाही करने, परिसंपत्तियों की नीलामी कर वसूली के प्रयास करने, इन खातों के कारण दिवाला घोषित करने और आईबीसी के तहत कार्यवाही करने जैसे कठोर कदम उठाए जा रहे हैं। पर परिणाम देखा जाए तो एनपीए के स्तर में कमी लाने में सहायक नहीं रहे हैं। उलटा दिन-प्रतिदिन एनपीए का स्तर बढ़ता ही जा रहा है।
दरअसल बैंकों का पैसा आम जनता की कड़ी मेहनत का पैसा है। लोन के लेकर नहीं चुकाने से एक ओर जहां लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा डूबत में चला जाता है, वहीं पूरा बैंकिंग सिस्टम इससे प्रभावित होता है। यही नहीं देश का आर्थिक विकास इस कदर प्रभावित हो रहा है कि इस लाखों-करोड़ रुपए को देश के विकास में आधारभूत सुविधाओं के विस्तार में किया जा सकता है। अनावश्यक रूप से मानव संसाधन को एनपीए की वसूली में लगाने में मानव श्रम का उपयोग किया जा रहा है, जिसका उपयोग रचनात्मक व विकासात्मक कार्यों में किया जा सकता है। केयर रेटिंग संस्था का आकलन है कि प्रतिकूल बाजार स्थिति भी समय पर कर्ज अदायगी में बाधक रही है। हालांकि केयर का ही आकलन है कि निजी बैंकों की तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए अधिक बढ़ा है। अब बैंकों के प्रबंध संचालक स्तर तक बड़े कर्जदारों से वसूली की नियमित समीक्षा होने लगी है। ऋण वितरण में गुणवत्ता और किस्त बकाया होते ही बैंक सजग हो जाए तो डूबत खाते में कर्ज फंसने की संभावना को काफी कम किया जा सकता है। बैंकों के एनपीए में बढ़ोतरी कहीं न कहीं बैंकिंग क्षेत्र की कमजोरी को भी उजागर करती है। ऋण वितरण सहज, सरल व प्रक्रिया आसान होनी चाहिए, पर ऋणों की वसूली में उतनी ही सख्ती और पारदर्शिता होगी तो निश्चित रूप से देर-सवेर एनपीए के स्तर में कमी आएगी।