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भीड़ में बदलता आदमी
भीड़ में बदलता आदमी
चैतन्य नागर    02 Jul 2017       Email   

सुबह से ही मौसम बहुत गर्म और उमस भरा था। जैसे ही घर से बाहर कदम निकाला, एक नन्ही गिलहरी किसी विराट पेड़ की डाल से खडं¸जे की पतली सड़क पर गिरी। धप्प से। पीठ के बल। उसकी तरफ  देखते हुए मैंने चार कदम बढ़ाए कि तभी उसकी कोमल मासूम देह में दो या तीन बार कंपन हुआ। जब मैं बिलकुल पास पहुंचा तो उसके खुले मुंह से गाढ़े रक्त की धार निकल रही थी। मैंने हल्के से उसे छुआ, देह शांत थी। उसकी आंखें खुली हुई थीं और जीवन समाप्त हो चुका था। मैंने पुतलियों को बंद किया, आहिस्ता से उसे उठाया और वहीं कोने में एक गड्ढा करने के बाद उसे जमीन के अंदर रख दिया। मिट्टी से ढांपने के बाद उसी वृक्ष की चार पत्तियां वहां रख दीं, जिसकी ऊंची डाल से वह गिरी थी। मुड़ कर देखा तो एक आवारा कुत्ता गाढ़े रक्त को चाट रहा था। कुत्ते के जाने के बाद वहां मृत्यु का कोई अवशेष नहीं बचा था। बिना किसी प्रतिरोध के, किसी भी तर्क-कुतर्क के बगैर जीवन समाप्त हो गया था। बस पूरे दिन मृत्यु की ठंडी सांसे अपनी पीठ पर महसूस करता रहा। अजीब सा अहसास था उसके सामीप्य का। विचित्र, पर जाना पहचाना सा।     
अस्वाभाविक, आकस्मिक मृत्यु और हिंसा के प्रति असंवेदनशीलता दिनोंदिन एक सामान्य बात होती जा रही है। हालांकि ऐसे कई व्यक्तिगत मित्र हैं, जो बहुत ही गंभीरता और ईमानदारी के साथ हमारी बाहरी-भीतरी दुनिया को बदलने में लगे हुए हैं। ये पूरी दुनिया में बिखरे हुए हैं, कहीं अकेले, कहीं छोटे-छोटे समुदायों में। ऐसे कई हैं, जिन्होंने अपनी बहुत ही कीमती डिग्रियों को ही ताख पर रख दिया है। ऐसी डिग्रियों को भी जिनके आधार पर वह बहुत ही आराम और अय्याशी की जिंदगी बिता सकते थे। इनमें से अधिकांश या तो किसी वामपंथी आंदोलन के साथ जुड़ गए हैं, कइयों ने पर्यावरण को बचाने में अपना जीवन झोंक दिया और कई प्राथमिक स्तर पर बच्चों की शिक्षा को बदलने में जुट गए हैं, क्योंकि उन्हें महसूस होता है कि प्राथमिक शिक्षा ही समाज को बदलने का अकेला ऐसा उपाय है, जो ठोस और टिकाऊ है। कुल मिलाकर इन मित्रों ने धरती को बचाने में, स्ति्रयों व शोषितों के हित में काम करने के लिए अपना समूचा जीवन समर्पित कर दिया है। पर आज का समय बहुत ही अजीब होता जा रहा है। ऐसे लोग संसार में बहुत ही कम बचे हैं और इनकी अपनी समझ, आदर्शवाद और ऊर्जा ही इन्हें दूसरों के लिए काम करने के लिए प्रेरित करती है। पर साथ ही सच्चाई यह भी है कि इस तरह के कई लोग अपनी भूमिका के बारे में स्पष्ट नहीं। वे समझ नहीं पा रहे, बरसों अपने काम में लगे रहने के बाद भी कि उनकी मेहनत के बाद भी क्यों समाज में कोई परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा। क्यों हिंसा और संवेदनहीनता बढ़ रही है। वे रैलियां निकलते हैं, लेख और कविताएं लिखते हैं, सामाजिक और व्यक्तिगत संवेदनशीलता के समर्थन में चीखते-चिल्लाते हैं, पर हर रोज सोने से पहले एक सुनसान अंधेरा उन्हें घूरता है और वे अपने प्रयासों की निरर्थकता और अपर्याप्तता से निराश होकर करवटें बदलते रहते हैं।
निरर्थक हिंसा के कारण होने वाली अप्राकृतिक मृत्यु के प्रति असंवेदनशील हो जाना एक भयावह घटना है। इसकी एक वजह तो यह है कि इनके बारे में हम रोज ही देखते-सुनते-पढ़ते हैं। सोशल मीडिया पर, टीवी चैनल्स पर और अखबारों में। हमें इसकी आदत पड़ गई है। क्या इतनी अधिक संख्या में इन घटनाओं को लगातार देखना-सुनना हमें संवेदनहीन बनाए दे रहा है। हमें अब यह सब कुछ सामान्य लगने लगा है। एक ऊर्जावान युवा कवि, आलोचक और सामाजिक कार्यकर्ता ने हाल ही में मेरे फेसबुक इनबॉक्स में किसी अखबार की एक क्लिपिंग भेजी। खबर थी कि उत्तर प्रदेश के एक शहर में पुलिस लाइन्स में ही दो पुलिस वालों ने एक युवती के साथ बलात्कार किया। मैंने पूछा कि इसे इनबॉक्स में क्यों भेजा है। उनका जवाब था- इस उम्मीद के साथ कि लोग शायद यहां इसे पढ़ें और कुछ कहें! उसके इस वक्तव्य में कितनी गहरी कुंठा और पीड़ा छिपी थी, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। लोग इन घटनाओं पर कुछ कहते भी नहीं, या तो उनपर असर नहीं पड़ता, या वे खुद भी किसी भय का शिकार हो गए हैं। क्या भारी आर्थिक और सामाजिक दबाव हमें असंवेदनशील बना दे रहे हैं। बचपन की उम्र घटती जा रही है और क्या हमें बहुत छोटी उम्र से ही असंवेदनशीलता की तरफ  धकेला जा रहा है और जब तक उसका किसी खतरनाक घटना के रूप में विस्फोट नहीं हो जाता, हमें खबर ही नहीं लगती।
पिछले कुछ महीनों में उन्माद में डूबी भीड़ ने देश के अलग-अलग हिस्सों में कइयों की जानें लीं। अभी चार दिन पहले ही खुद प्रधानमंत्री ने इसके खिलाफ  आवाज उठाई और लोगों को चेतावनी दी कि वे कानून को हाथों में न लें। मार्च 2017 में इस तरह की पहली घटना त्रिपुरा में हुई और उसके बाद से अभी तक ऐसी आठ घटनाएं हुई हैं, जिनमें एक भीड़ ने उन्माद में चीखते-चिल्लाते किसी की हत्या कर दी। गोरक्षकों की एक नई पांत खड़ी हो गई है। पूरे देश में और मवेशियों की तस्करी के आरोप में या सीधे-सीधे गोमांस घर में रखने या गाय को मारने के आरोप या अफवाह को लेकर किसी खास धर्म या जाति के व्यक्ति को मार डाला गया है। आदमी का भीड़ में तब्दील होने का शौक उसकी बीमार मनोदशा का संकेत है।  
गौरतलब है कि ये घटनाएं अक्सर अचानक, किसी जुनून में आकर नहीं होतीं। अक्सर ये सुनियोजित होती हैं। इन घटनाओं के विडियो लिए जाते हैं और फिर खासकर फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर के जरिए उन्हें ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाता है। हजारों की संख्या में लोग इनके पक्ष में लिखते हैं और जो इनका विरोध करते हैं, वे मेरे नाम पर नहीं जैसे अभियान चलाते हैं, राजधानी की सड़कों पर कैंडल मार्च लेकर निकलते हैं। पर विष के फैलने की रफ्तार तेज होती है, जबकि होशोहवाश में रहने की, प्रेम और शांति के साथ जीने की हिदायतें बड़ी धीमे-धीमे चलती हैं। अफवाहें इन घटनाओं को भड़काने में बड़ी भूमिका निभाती हैं। अब तो माहौल ऐसा बिगड़ा है कि मैंने अपनी किसी पोस्ट पर गांधी जी को उद्धृत किया कि वह कहते थे कि मैं गाय को मां मानता हूं, पर उसे मारने के लिए मैं किसी इंसान की हत्या नहीं करूंगा। इस पोस्ट पर कमेंट करते हुए एक महानुभाव ने लिखा कि गांधी जी को बहुत पहले ही मार दिया जाना चाहिए था! प्रेम और सौहार्द की बातें भी लोगों को भड़का देती हैं। जिन बातों का शुद्ध उद्देश्य सिर्फ  शांति फैलाना होता है, उन बातों से भी नफरत सुलग जाती है। इसलिए यह समय बहुत ही अनिश्चितता और यातना का समय है। नफरत की बातें फैलाने वाले निर्भीक घूम रहे हैं और समझदार लोगों को सोशल मीडिया पर एक छोटी टिपण्णी करने के पहले भी दो-चार बार सोचना पड़ता है। ऐसा नहीं कि वे कायर हैं, पर वे उन्मादी भीड़ के शिकंजे में फंस कर जान देना भी नहीं चाहते।
भीड़ के उन्माद का अपना खास मनोविज्ञान होता है। वह किसी भी देश में किसी भी वजह से बेकाबू हो सकती है। खेल के नाम पर लोग भड़क जाते हैं, किसी स्त्री के साथ बदसलूकी करने के लिए भीड़ इकट्ठा हो सकती है, भले ही वह भीड़ छोटी ही हो। उन्मादी भीड़ की खास बात यह होती है कि उसमें कोई किसी को पहचाने यह जरूरी नहीं, लोग एक-दूसरे को देख कर, एक दूसरे की तरह आचरण करते हुए किसी हादसे को अंजाम देने में लग जाते हैं। समूह की घटिया हरकत में पीछे किसी एक व्यक्ति की पहचान छिप जाती है। गुमनामी का फायदा उठाकर लोग भीड़ में अपनी नई-पुरानी भड़ास भी निकाल लेते हैं। अभी हाल में ही पाकिस्तान में पत्रकारिता के एक छात्र को ईशनिंदा के आरोप में मारा-पीटा गया और बाद में उसके सीने में गोली मार दी गई। एक भीड़ ने मिलकर ऐसा किया। यह छात्र मार्क्स और चे ग्वेरा का प्रशंसक था और मजहब का माखौल उड़ाता था।
आज के हालात की व्याख्या करते हुए कई इतिहासकार हिंदू धर्म के इस्लामीकरण का उल्लेख करते हैं। उनका मानना है कि हिंदू धर्म का मूलभूत संदेश सर्वसमावेशी और सहिष्णु रहा है। ऐसी दलीलें सभी धर्म के लोग देते रहते हैं, पर वे मौका मिलते ही हिंसा में लिप्त होने से परहेज नहीं करते। किसी भी सभ्य और आधुनिक देश में बहुसंख्यक समुदाय की यह बड़ी जिम्मेदारी है कि वह बाकी लोगों की हिफाजत करे, उन्हें प्रेम और अहिंसा के साथ मुख्यधारा में जोड़ने के प्रयास करता रहे। साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के प्रबुद्ध लोगों को भी अपने अनुयायियों को सही दिशा दिखानी चाहिए और उन्हें टकराव का रास्ता छोड़ कर सौहार्द का मार्ग अपनाने की सलाह देनी चाहिए। यदि हिंदू सहिष्णु है, समूचे ब्रह्मांड को अपना परिवार मानता है तो यह बात उसके आचरण में दिखाई देनी चाहिए। देश के विभाजन के समय हुई भयावह हिंसा को देखकर पंडित नेहरू ने कहा था कि देश को सतर्क रहना चाहिए, नहीं तो इसे ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने में देर नहीं लगेगी। इस वक्तव्य का आज के समय में खास महत्व है।






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