चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, सबसे बड़े मुकदमेबाज वही हैं। अगर केंद्र और राज्यों की सरकारें देशभर की अदालतों में दाखिल सभी मामलों को वापस लेने का फैसला ले लें तो करीब 3 करोड़ 15 लाख केस कम हो जाएंगे। यानी अदालतों में लंबित कुल मामलों में 46 फीसदी की कमी आ जाएगी। केंद्रीय कानून मंत्रालय की ओर से तैयार की गई अपने किस्म की पहली रिपोर्ट में इस तथ्य का खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, लंबित केसों के मामले में केंद्र सरकार के शीर्ष पांच मंत्रालयों में रेलवे, वित्त, गृह, संचार और रक्षा हैं। इन मंत्रालयों ने अपने अफसरों, दूसरे सरकारी विभागों और कई सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम यानी पीएसयू के खिलाफ सबसे ज्यादा मामले कोर्ट में दायर कर रखे हैं। रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है कि रेलवे की ओर से देशभर की अदालतों में सबसे ज्यादा 70 हजार मामले दायर हैं। इनमें से 10 हजार तो 10 साल से ज्यादा वक्त से लंबित हैं। इसके बाद वित्त मंत्रालय का नंबर आता है, जिसके 15700 मामले लंबित हैं।
अध्ययन में सिर्फ केंद्रीय मंत्रालयों की ओर से लंबित केसों को शामिल किया गया है, राज्यों के मामले नहीं। अगर केंद्र और राज्य सरकारों के केसों को जोड़ दिया जाए तो यह अदालत में लंबित कुल मामलों का 46 प्रतिशत हो जाता है। देशभर की अदालतों में लंबित 3 करोड़ 15 लाख मामलों में सुप्रीम कोर्ट के केसों की हिस्सेदारी 60,750 है। हाईकोर्ट में लंबित मामले 40 लाख, जबकि जिला और अन्य निचली अदालतों में यह संख्या 2 करोड़ 74 लाख है। कानून मंत्रालय के मुताबिक, सरकार की ओर से दाखिल मामलों में सर्विस से जुड़े मुद्दे, निजी कंपनियों से विवाद, दो सरकारी विभागों में विवाद और दो पीएसयू के बीच विवाद शामिल हैं।
अदालतें मुकदमों के बोझ से कराह रही है। लंबित तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों में करीब आधे सरकारी है। लेकिन अब सरकार ने न्याय को रफ्तार देने और अदालतों से सरकारी मुकदमों को बोझ घटाने के लिए पहल की है। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर सरकारी मुकदमों की समीक्षा करने को कहा है। कानून मंत्री ने कहा है कि गैर जरूरी मुकदमों को या तो वापस लिया जाए या फिर उनका जल्दी निपटारा कराया जाए। इतना ही नहीं, सभी राज्य और मंत्रालय इस बारे में कानून मंत्रालय को तिमाही रिपोर्ट भेजेंगे, जिसमें बताया जाएगा कि कितने मुकदमे वापस लिए गए, कितने में सुलह हुई और कितने निपटाए गए? कानून मंत्री ने अदालतों में मुकदमों का बोझ और सरकार के सबसे बड़े मुकदमेबाज होने पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा है कि सरकार को बेवजह की मुकदमेबाजी से बचना चाहिए।
देशभर की अदालतों में करीब 3.14 करोड़ मुकदमें लंबित है, जिसमें से 46 फीसदी सरकार के हैं। न्यायपालिका का ज्यादातर वक्त सरकार के मुकदमों में ही चला जाता है। न्यायपालिका का बोझ तभी घट सकता है, जबकि मुकदमे सोच-समझकर दाखिल किए जाएं। कानून मंत्री ने मंत्रालयों और सरकारी विभागों से कहा है कि वे प्राथमिकता के आधार पर लंबित मुकदमों की समीक्षा करें और उनके जल्द निस्तारण के लिए विशेष अभियान चलाएं। समीक्षा करते समय मुकदमा जारी रखने में आने वाले खर्च, लगने वाले समय और याचिकाकर्ता को मिलने वाली राहत के पहल को भी ध्यान में रखा जाए। सरकारी विभागों के बीच मुकदमेबाजी हतोत्साहित होनी चाहिए। बहुत जरूरी होने पर अंतिम उपाय के तौर पर ही मुकदमा किया जाए। सरकार के वकील द्वारा बार-बार अदालती कार्यवाही में स्थगन लेने और बाधा डालने को गंभीरता से लिया जाए। कानून मंत्री ने न्याय विभाग के सचिव को मंत्रालय के साथ नियमित बैठक कर इसकी समीक्षा करने का निर्देश दिया है।
गौरतलब है कि वर्ष 2010 में तत्कालीन विधि मंत्री एम. वीरप्पा मोइली ने राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाई थी। लेकिन यह लागू नहीं हो पाई थी। उनके बाद आने वाले विधि मंत्रियों ने इस नीति पर काम किया, लेकिन अब तक यह तैयार नहीं हो सकी। हाल ही में कानून मंत्रालय ने विधि आयोग को मुकदमा नीति का मसौदा तैयार करने को कहा था। विधि मंत्री रविशंकर प्रसाद ने मार्च में अपने मंत्रिमंडलीय सहयोगियों को पत्र लिख कर कहा था कि सरकार को मुकदमेबाजी कम करनी चाहिए। उन्होंने ऐसा ही पत्र सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी लिखा था। पिछले साल अक्टूबर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकार को सबसे बड़ा मुकदमेबाज बताया था। उन्होंने न्यायपालिका पर बोझ कम करने पर जोर दिया था।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने एक अहम फैसला देते हुए कहा है कि अदालतों में मुकदमों के बढ़ते अंबार तथा बीसियों साल तक मुकदमों के विचाराधीन पड़े रहने में राज्य सरकार की भूमिका अहम है। पीठ ने सूबे के संबंधित सरकारी अधिकारियों की हीलाहवाली से मुकदमों में समय से जवाब दाखिल न होने को गंभीरता से लिया है। हालांकि अपने आदेश में अदालत ने स्पष्ट किया है कि सरकारी वकील पत्र अथवा अन्य माध्यमों से मुकदमे की जानकारी संबंधित विभाग को भेज देते हैं, लेकिन उनपर जिम्मेदार अफसरों द्वारा ध्यान नहीं दिया जाता। उच्च न्यायालय ने 20 साल पुराने मुकदमे में जवाब न आने पर प्रदेश के मुख्य सचिव से पूछा है कि जवाब दाखिल करने की कार्यप्रणाली क्या है। अदालत ने 20 साल पुराने देवानंद मिश्रा के मामले में जवाब दाखिल करने के लिए 50 हजार हर्जाने के साथ 15 दिन की मोहलत दी है। अदालत ने सुनवाई के समय कहा कि ज्यादातर मुकदमों में जवाब समय से फाइल न होने से अदालत में मुकदमों का अंबार बढ़ रहा है। पीठ ने कहा कि राज्य सरकार स्वयं एक अहम पक्षकार है, लिहाजा उसकी यह जिम्मेदारी है कि समय से मुकदमों में जवाब पेश किया जाए। अदालत ने मामले की अगली सुनवाई 22 अगस्त को नियत की है।
मुकदमों के भारी बोझ के पीछे की हकीकत यह है कि बहुत सारे मामले स्वयं सरकार की देन है। न्यायपालिका का समय सबसे ज्यादा उन मामलों को जाता है, जिनमें सरकार पक्षकार है। यहां यह बता दें कि कानून मंत्री से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सरकार के सबसे बड़ी मुकदमेबाज होने पर चिंता जता चुके हैं। उन्होंने पिछले साल अक्टूबर में कहा था कि अगर कोई सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरी से जुड़े मामले में अदालत की शरण में जाता है और फैसला उसके पक्ष में होता है, तो उस फैसले को मानक मानकर हजारों अन्य कर्मचारियों को वैसे ही लाभ दिए जाने चाहिए, ताकि मुकदमों का बोझ घटाया जा सके।
लेकिन अब तक होता यह रहा है कि बहुत सारे मामलों में सरकार निहायत अनावश्यक होने पर भी अपील दायर कर देती है। इसके अलावा बहुत से सरकारी महकमे अंतर्विभागीय विवादों को आपस में सुलझाने के बजाय अदालत में पहुंच जाते हैं। यह अच्छी बात है कि सरकार के बेवजह पक्षकार बनने की व्यर्थता का अहसास हमारे नीति नियंताओं में बढ़ रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे मुकदमों की तादाद घटेगी। यही नहीं बहुत सारे गैर जरूरी मुकदमे असहमति तथा विरोध की आवाज कुचलने के इरादे और नौकरशाही के झूठे अहंकार की देन होते हैं, जिसके लिए सरकार को प्रशासनिक सुधार करना होगा।