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भारत के बदलने का संदेश
भारत के बदलने का संदेश
योगेश मिश्र    11 Jul 2017       Email   

घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध। इस कहावत को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं ने एक दम यथार्थ साबित कर दिया। यह भारत में उनके मुट्ठीभर विरोधियों के लिए भी बड़ा जवाब है। वैश्विक स्तर पर मोदी ने इस यात्रा में जिस तरह की राजनय उथल-पुथल मचाई है, वह भारतीय विदेश नीति में एक साथ कभी नहीं देखा गया। हालांकि प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने 1992 में इजराइल से रिश्ते कायम कर भारतीय राजनय का एक नया द्वार खोला था। लेकिन उसके बाद इन रिश्तों को पहचान देने की कोई सार्थक पहल नहीं हुई। जो हुई उसमें तुष्टीकरण ज्यादा था, लेकिन नरेंद्र मोदी ने तुष्टीकरण की सियासत को जिस तरह पूरे देश में हाशिए पर रखा, वैसे ही वैश्विक राजनय के क्षेत्र में एक नई इबारत लिखने की न सिर्फ  हिम्मत की, बल्कि इसके सारे कहे-सुने खतरे मोल लेने की ताकत भी दिखाई। 
मोदी का ‘श्लोम’ कह कर यात्रा की शुरुआत करना और इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू का हिंदी में ‘स्वागत है मेरे दोस्त’ अनंत ध्वनियों की तरह वैश्विक राजनय में बजने लगा। अब तक के भारतीय और दुनिया के दूसरे नेताओं की तरह मोदी ने फिलिस्तीन के रमल्ला को यात्रा का कोई पड़ाव नहीं बनाया। जबकि अब तक इजरायल के साथ फिलिस्तीन जाना हर नेता के लिए एक रवायत सरीखी बन गई थी। 
इजरायल में 17.6 फीसदी मुस्लिम हैं, जबकि भारत में इनकी तादाद करीब 15 फीसदी बैठती है। पश्चिमी एशिया का वह एकलौता लोकतांत्रिक देश है। 70 के दशक में भारतीय जनसंघ का झुकाव इजरायल की तरफ  रहा है। मोदी ने अपनी सरकार की विदेश नीति को भारतीय जनसंघ की विदेश नीति की विचारधारा के आसपास लाकर न केवल खड़ा किया है, बल्कि इतनी मजबूती दे दी है कि अपनी सरकारी घोषणा के बाद चीन के राष्ट्रपति जी शिनपिन को मोदी से मुलाकात करनी पड़ जाती है। भूटान के डोक-ला इलाके में भारतीय सेना चीनी सेना के ठीक सामने तंबू गाड़कर खड़ी हो जाती है। चीन को यह गुहार लगानी पड़ती है कि भारत पंचशील सिद्धांतों को कुचल रहा है। यह सब अचानक नहीं हुआ। चीन ने इन दिनों पाकिस्तान और नेपाल के साथ अपने रिश्तों में प्रगाढ़ता लाते हुए भारत को घेरने की कोशिश शुरू की है। चीनी राष्ट्रपति जब गुजरात में नरेंद्र मोदी के साथ झूले पर गुफ्तगू कर रहे थे तो चीनी सेना हमारी सीमा में दखलअंदाजी कर खलल डालने की कोशिश में लगी थी। इन सबका एक ठोस और माकूल जवाब इजरायल, अमेरिक, जापान और रूस के साथ नई इबारत लिखकर नरेंद्र मोदी ने यह बता दिया है कि कोई भी कोशिश चीन को 1962 की तरह गर्व का अहसास नहीं करने देगी। शायद यह पहला मौका है कि भारत का रक्षा मंत्री यह कहने की हिम्मत जुटा सका कि 1962 और 2017 की स्थितियों में बेहद अंतर है। इसे चीन को समझना होगा। हालांकि चीन को यह भी याद होगा कि 1962 के पांच साल बाद ही सिक्किम (तब स्वायत्तशासी राजतंत्र) के नाथूला और चो-ला में भारतीय सेना ने न सिर्फ  नाकों चने चबवा दिए थे, बल्कि 11 सितंबर से 15 सितंबर और एक अक्टूबर, 1967 के छोटे से युद्ध में चीन की सेना को घुटने टेकने और तीन किलोमीटर पीछे जाने पर मजबूर कर दिया था। अब तक चीन वहीं पर है। इस युद्ध में भारत ने भले ही 88 रणबांकुरे खोए हों, पर चीन के 340 सैनिकों को मौत के घाट उतार कर उसकी गलतफहमी को दूर कर दिया था। इतना ही नहीं 1972 में चीन ने वियतनाम से भी पराजय झेली है। यह बुरहान वानी को शहीद का दर्जा देकर श्रद्धांजलि देने और आतंक को प्रयोजित करने वाले पाकिस्तान के लिए भी बड़ा संदेश है। 
आज जब चीन आर्थिक शक्ति बनने की दौड़ में है, भारत उसके लिए एक बड़ा बाजार है। मोदी को 53 फीसदी लोग वोट करते हैं। मोदी एक ऐसे लोकप्रिय नेता हैं, जो चीनी सामानों के बहिष्कार की अपील कर देंगे तो चीन की अर्थव्यवस्था का खड़ा रह पाना बेहद मुश्किल हो जाएगा। साइबर और एडवांस टेक्नालजी में इजरायल की श्रेष्ठता की दुनिया कायल है। चीनी और पाकिस्तानी हैकरों का जवाब इजरायल के पास है। चीन और इजरायल भी लिव-इन रिलेशन में हैं। इजराइल ने चीन की वन रोड-वन बेल्ट का समर्थन किया था। स्टार्ट अप के लिए इजरायल की जमीन सबसे उपजाऊ है। 1000 इजरायली स्टार्ट अप कंपनियां चीन में काम करती हैं। बावजूद इसके 1962 में नेहरू को चीन के इजरायल ने मदद की थी। भारत के सैन्य रिश्तों में इजरायल ने दुनिया के हर देश को भारत से पीछे रखा है। 2012-2016 के दौरान इजरायल के रक्षा निर्यात का 41 फीसदी भारत ने खरीदा है। रूस से 68 फीसदी और अमेरिका से 14 फीसदी खरीददारी हुई है। इजरायल से रिश्तों के नाते अमेरिका और भारत के रिश्ते भी करीब होंगे। तेलअवीव-दिल्ली और वाशिंगटन तीनों जगह दक्षिणपंथी समझी जाने वाली सरकारें हैं। यही वजह है कि मोदी ने इजरायली लम्हों को न केवल ऐतिहासिक बनाया, बल्कि नेतान्याहू ने भरत मिलाप कर दिखाया। जिस जमीन पर इजरायल है, वह सभ्यताओं के जन्म की भूमि है। जिस पर पहला हक यहूदियों का है। भारत-अमेरिका-जापान के नौसेना युद्धाभ्यास को लेकर चीन की धमकियों का हस्र वैसा ही होने वाला है, जैसा भूटान की डोक-ला की जमीन पर कब्जा करने की मंशा से अपने बल का प्रदर्शन करते हुए भारतीय सेनाओं के अड़कर खड़े हो जाने का है। जर्मनी के हिटलर से ज्यादा खतरनाक है चीन। हिंदी चीनी भाई-भाई के दौर में भी वह हमारा अक्साइ चिन हड़पता रहा। समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव बार-बार यह कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मौत चीन के विश्वासघात के हादसे से हुई। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बलपूर्वक बदलने वाला सबसे अगुवा देश है चीन। दुनिया के 20 देशों के साथ उसके सीमा विवाद रहे हैं। चीनियों का मानना है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में भूटान और सिक्किम चीन का हिस्सा थे। 21वीं शताब्दी में चीन ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में जीना चाहता है। सैन्य बल और अपनी दूसरी ताकतों के बदौलत चीन महाशक्ति बनने की अपनी दौड़ में भले ही आगे निकल गया हो, पर चीन की अर्थव्यवस्था इन दिनों उतनी बलिष्ठ नहीं है। अर्थव्यवस्था को खाद-पानी जिन देशों से मिल रहा है, उनके साथ चीन अपने रिश्ते खराब करने की निरंतर गलती कर रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ में वह पाकिस्तानी आतंकवादियों के साथ खड़ा होता है। चीन को भारत के संदर्भ में इस नजरिए को बदलना होगा, क्योंकि भारत आज एक बड़ी उभरती महाशक्ति है, जिसके प्रधानमंत्री से मिलने के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप को पहल करनी पड़ती है। रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन एक अच्छा दोस्त बताकर खिल उठते हैं, जापान उस पर भरोसा करता है, पाकिस्तान को छोड़कर सार्क देश उसे अपना बड़ा भाई मानते हैं और चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग को अपनी मीडिया और विदेश मंत्रालय के गलाफाडू बयान के बाद विश्वमंच पर मोदी से सिर्फ  हाथ ही नहीं मिलाना पड़ता, उनकी तारीफ  भी करनी पड़ती हैं। 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 






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